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साहित्य, संस्कृति, कला

साहित्य का समकाल – पूँजी , बाज़ार . और विभ्रम

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Oct 2, 2022
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लेखक परिचय

नाम – उमाशंकर सिंह परमार

काम- पढना , लिखना ,समाज सेवा , किसान आन्दोलन से जुडाव , जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश का राज्य उप सचिव

विधाआलोचना , कभी कभार कविता

पुस्तकप्रतिपक्ष का पक्ष ( आलोचना) , सुधीर सक्सेना – प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य ( आलोचना) ,समय के बीजशब्द ( आलोचना ) पाठक का रोजनामचा ( आलोचना ) कविता पथ ( आलोचना ) सहमति के पक्ष में ( प्रकाशकाधीन आलोचना )

प्रकाशनहिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं जैसे चिंतन दिशा , व्यंजना , कृति ओर , हिमतरु , नयापथ , हंस , प्रयाग पथ , मंतव्य सप्तपर्णी , दुनिया इन दिनों , स्वाधीनता , वर्तमान साहित्य , जनपथ , लहक , प्राची , लमही , सुखनवर , जन्संदेश टाइम्स , लोकलहर , रस्साकसी , अनहद , माटी , वसुधा , यात्रा , लोकोदय , बाखली , प्रसंग बिहान ,मंतव्य छत्तीसगढ़ मित्र , बुन्देलखंड कनेक्ट आदि में आलेखों का प्रकाशन |

महत्वपूर्ण ब्लॉगों में प्रकाशन , लोकविमर्श ब्लॉग एवं आलोचना पत्रिका का लोकविमर्श का संपादन ,
पताद्वारा गऊलाल डाकिया , प्रधान डाकघर अतर्रा रोड बबेरू , जनपद बाँदा 210129
इमेल – umashankaersinghparmar@gmail.com
फोन – 9838610776

साहित्य का समकाल – पूँजी , बाज़ार . और विभ्रम

 

साहित्य और संस्कृति परस्पर विरोधी शक्तियों के आपसी द्वन्द से नियन्त्रित होती हैं ।यह सच है। साहित्य में कलावाद और विचारवाद की बहस काफी पुरानी है। छायावादी अवसान और प्रगतिशीलता के उत्थान के बीच यह द्वन्द हिन्दी कविता में और तेज हुआ । आगे चलकर 1943 से लेकर साठ के दशक तक कलावादी कविता का युग रहा इस समय सीमा में प्रगतिशील कविता हासिए पर रही ।साठ के बाद हिन्दी कविता में एक ऐसा लेखक वर्ग आया जो कलावादी मध्यमवर्गीय रूझान का नही था उसने कविता को विचारधारा से जोडते हुए यथार्थ की भाषा और सत्ता व व्यवस्था के प्रति मोहभंग को तरजीह दी ।यह दशक महत्वपूर्ण रहा धूमिल ,मलय ,महेन्द्र भटनागार ,हरीश भदानी , जैसे लोग इस दौर के महत्वपूर्ण कवि रहे । साठ के दशक में ही अशोक बाजपेयी का आगमन कलावादी उत्थान के रूप में देखा जाता है ।अशोक बाजपेयी ने हिन्दी कविता मे एक नयी संस्कृति दी । वह सरकारी सहयोग और पुरस्कार , पद व जोडतोड की संस्कृति के पुरोधा रहे । वाम प्रगतिशील कवियों विचारों के विरोधी रहे ।  अशोक बाजपेयी ने साहित्य को उपभोग और मनोरंजन के साथ राजनीति और वैयक्तिक कैरियर का साधन बनाया । जब अशोक बाजपेयी की अश्लील प्रेम कविताओं की तूती बोलती थी उस समय भी केदारनाथ अग्रवाल ,त्रिलोचन और नागार्जुन लिख रहे थे मगर कोई भी इनके लेखन की ओर ध्यान नही दे रहा था ।

अचानक धूमिल के रूप मे साठोत्तरी कविता के उत्थान ने बाजपेयी के कलावाद की आभा मद्धिम कर दी और सत्तर के दशक मे एक ऐसी युवा पीढी का उत्थान हुआ जो कलावाद के विरुद्ध आक्रामक और रचनात्मक दोनो स्तरों पर सक्रिय रहे । इस पीढी में विजेन्द्र , भगवत रावत , कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह ,जैसे कवियों का प्रदेय हम सबके सामने आया । आज की कविता का लोकधर्मी स्वरूप बहुत कुछ सत्तर और अस्सी के दशक की देन है ।लेकिन कलावाद ने अपने आपको पूरी तरह से बदल लिया है । कलावाद का स्वरूप वह नही रह गया जो पुराने समय मे होता था । कविता महानगरीय उपभोक्तावादी जीवन दर्शन व दैहिक भंगिमाओं और वैश्वीकरण की स्थापित निर्मितियों की तरफ चल पडी है तो कलावादी अकादमिक आलोचना पर भी वैश्वीकरण और कारपोरेट संस्थाओं का प्रभाव बढा है । वह उत्तर आधुनिकता और रूपवाद की ओर बढ चली है । कारपोरेट पूँजी का निवेश साहित्य में बढा है । मीडिया मे भी पूँजी का नियन्त्रण बढा है ।

सरकारों और मीडिया के बीच पूँजी सेतु का काम कर रही है और लेखक इस सेतु का प्रयोग करके बडी आसानी से इधर उधर आवागमन कर रहे हैं ।इस समय का परिदृष्य यह है कि उपभोगमूलक मिथकों से मानव जीवन को नियन्त्रित करने की प्रक्रिया के कारण हमारी बुनियादी पहचान और भाषा के साथ प्रकृति व जीवन के प्रति रागात्मक सम्बन्ध भी संकट के दौर से गुजर रहे हैं ।

“लोक” शब्द से आम आदमी विस्थापित हो चुका है हमें आज के उपभोक्तावादी दौर में विकास प्रक्रिया के अन्तर्विरोध जगजाहिर हो चुके हैं । अमानवीयकरण की प्रक्रिया इतनी तीव्र है कि मनुष्य का दिमाग भी यान्त्रिक हो सकता है ।स्वप्निल सुख , काल्पनिक राष्ट्रवाद , जातीयताबोध , छद्म विकास जनित जिस व्यक्ति की पहचान है वह वैश्वीकरण द्वारा विनिर्मित मिथकों से संचालित उपभोक्ता है ।वह कला और साहित्य की जरूरत उपभोग व बाजार के अनुकूलन के तौर पर देखता है । ऐसा व्यक्ति निर्मित किया गया है कि उसे रचना से अधिक बाजार  पर भरोसा है सामाजिक सरंचनाओं का बीज शब्द वह बाजार से ग्रहण कर रहा है   समता और समान वितरण जैसी अवधारणाओं के स्थान पर  माँग और पूर्ति का कीमत सिद्धांत  घोषित तौर पर काबिज हो चुका है । यह पढा लिखा मध्यमवर्ग और शहरीकृत हिन्दुस्तानी व्यक्ति बडी चतुराई से लोकधर्मी साहित्य व उसके सिद्धांतों के विरुद्ध लडाकू योद्धा की तरह लड रहा है ।वैश्विक पूँजी व उपभोक्तावाद को सर्वाधिक खतरा लोकधर्मी मूल्यों से है।

विचारधारा के स्तर पर उत्तर आधुनिकता का प्रतिरोध लोकधर्मी साहित्य ने ही किया और अपने आपका पुनर्मूल्यांकन करते हुए परम्परा से अस्वीकृत मुद्दों पर भी नये ढंग से विचार किया ।लोकधर्मी लेखकों का यह बदलाव उत्तर आधुनिकता के लिए संकट से कम नही था । यही कारण है नब्बे के दशक की कविता मे सर्वाधिक स्वीकृत लेखक लोकधर्मी ही रहे और अस्सी के दशक मे अशोक बाजपेयी का विशिष्ट नारा “कविता की वापसी” फेल हो गया और नये लेखकों की पीढी का  साठ से सत्तर के दशक के सारे आन्दोलनों और विचारों व साहित्यिक प्रतिपाद्यों , नामवरी प्रतिमानों मोहभंग हो चुका था और उस पीढी ने केदार नागार्जुन त्रिलोचन से अपनी परम्परा ग्रहण की । यह दौर लोकधर्मी लेखन का स्वर्णयुग कहा जा सकता है । मलय विजेन्द्र , शम्भू बादल , हरीश भादानी , भगवत रावत ,  कुमारेन्द्र पारस ,सुधीर सक्सेना जैसे रचनाकार सक्रिय हुए लोकधर्मी चेतना को नयी पहचान दी जिसका प्रभाव नब्बे के दशक की कविता मे स्पष्ट देखा जा सकता है । नब्बे से दो हाजार के बीच सब कुछ ठीक रहा नासिर अहमद सिकन्दर , अनिल कुमार सिंह  , योगेन्द्र कृष्णा  जैसे कवि उपभोक्तावाद व भावी बाजारवाद और  वैश्विक परिदृष्य के मुद्दों को लेकर  रचनात्मक  प्रतिरोध करते रहे ।लेकिन वास्तविक संकट की शुरुआत दो हजार के बाद हुई देरिदाँ का विचारधारा की मौत थ्योरी , रोलाँ बाथ का लेखक की मौत थ्योरी ने भारतीय विश्वविद्यालयी आलोचकों को आकर्षित किया ।

इन बाजारवादी लोकविरोधी सिद्धांतों का हिन्दी कविता और आलोचना मे प्रवेश विश्विद्यालयों व कारपोरेट आयोजनों के माध्यम से होना भी एक गम्भीर साहित्यिक साजिस का प्रतिफलन था । जनवादी गोष्ठियों व स्थानीय मुद्दे सरोकारों को गायब करने के लिए सबसे कमजोर कडी आयोजन थे आयोजन के लिए वैश्विक उपभोक्तावाद ने सरकारी प्रतिष्ठानों और कारपोरेट प्रतिष्ठानों को माध्यम बनाया । लिहाजा हिन्दी में भी लेखक का अन्त , विचारधारा का अन्त , इतिहास का अस्वीकरण ,आलोचना का अन्त जैसे फतवे जारी होने लगे और रही सही कसर इस तीव्र शहरीकरण ने पूरी कर दी ।

शहरीकरण , ने पाठक नही उपभोक्ता तैयार किए उनके लिए किताब से अधिक कम्प्यूटर प्रमाणिक है । किताब भाषा का विनिर्मिति से अधिक कुछ नही है । लोक भाषा का स्थान इंटरनेट की भाषा लेती जा रही है कम्प्यूटर से निकल कर यह भाषा पत्र पत्रिकाओं मे जगह पा चुकी है ।अब गाँव पर कविता लिखने के लिए गाँव जरूरी नही रह गया है गूगल जरुरी हो गया है । यह कहने में संकोच नही है कि भाषा और विचारधारा पर संकट इतना जल्दी नही आता मगर टेक्नालाजी ने सब कुछ जल्दी सम्भव कर दिया ।प्रतिबद्धता और ईमानदारी जैसे शब्दों का आलोचकीय प्रयोग आक्रमण की तरह प्रतीत होने लगे हैं । विरोध हिंसक हो चुके हैं आप विनिर्मित दायरे की मुखालफत नही कर सकते हैं । ये उपभोक्तावादी अवैचारिक सैन्य शिविर लोक धर्मी लेखन के खिलाफ आज सबसे बडा संकट है ।

विजेन्द्र इस संकट को बहुत पहले ताड चुके थे वह उत्तर आधुनिक शब्द के ही खिलाफ रहे उन्होने कृतिओर 40 में कहा था “समकालीन होने के लिए ऐतिहासिक द्वन्दवाद , भौतिकवाद ,वर्गसंघर्ष की भूमिका बेहद जरूरी है” । विजेन्द्र समकालीनता के विरोधी नही रहे मगर आधुधिकता के नाम पर रुपवाद के विरोधी रहे । क्योंकी उत्तर आधुनिक स्थिति मेगासिटीज मे तो दिखाई देती है पर नब्बे फीसदी भारत और यहाँ की बहुसंख्यक आबादी आज भी जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित है ऐसे मे आधुनिकीकरण भी एक जुमला है ।जब आबादी आधुनिक नही है तो सैद्धांतिकता कैसे आधुनिकता मे तब्दील होगी ।उत्तर आधुनिकता केवल रूपवाद का नया फंडा है । विचारधारा के विरुद्ध नामवरी प्रतिमानों का नया विकसित रूप है ।लोकधर्मी लेखकों ने नामवर सिंह के प्रतिमानों को कभी मान्यता नही दी है ।

नीलकान्त  चन्द्रबली सिंह नासिर अहमद सिकन्दर , अमीरचन्द वैश्य ,  कामेश्वर त्रिपाठी तक ऐसे नाम हैं जो निरन्तर इन प्रतिमानों के विरुद्ध रहे । इधर नये बदलावों ने पुनः इन प्रतिमानों को चर्चित कर दिया है उपभोक्तावाद और बाजारवाद ने विचारधारा के विरुद्ध तन्त्र विकसित किया ।सरकारों से खुलकर सहायताएं ली गयीं । विश्वविद्यालयों में प्रतिमानों पर सकारात्मक शोध कराए गये लेखकों को पुरस्कृत व पद देकर पाला बदल कराया गया । लोकधर्मी लेखक जल्दी जल्दी बदलने वाली इन स्थितियों को नही समझ सके और स्थितियाँ बदतर होती हो गयीं है । हमारे लोक का स्वरूप विकृत रहा है या हम इसे सही तरीके अभिव्यक्त नही कर सके हैं ।यह इतना सुकोमल कर दिया गया कि डायलैक्टिक मैटेरियालिज्म की पहचान भी कठिन हो गयी । अभी तक “अहा ग्राम्य जीवन” मे लोकधर्मिता के तत्व खोजने वाले आलोचक भरे पडे हैं ।

आलोचना जब गहराई मे उतरती है तो दक्षिण और वाम का भेद भी मिट जाता है ।हिंसक साम्प्रदायिक भी स्वयं को लोकधर्मी कहता रहा  है ।ऐसे ध्रुवान्तों और विचारों के भीषण अन्तराल को मिटाना पडेगा । हमें विजेन्द्र , मानबहादुर सिंह और एकान्त श्रीवास्तव , बद्रीनारायण की कविता में अन्तर देखना पडेगा ।हमे लोक सौन्दर्य की परिभाषा बदलनी होगी । मूल्य तय करने पडेगें ।कल्पना जीवी लोक सुखबोधी लोक और संघर्षी लोक मे अन्तर कर ऐसे तत्वों को खारिज करना पडेगा जो लोक के विस्तार के बहाने विचारधारा पर संकट बनकर छा गये हैं । ज्यों ज्यों लोक की समझ साफ होगी त्यों ज्यों संकट भी दूर होगें ।लोकधर्मी लेखन मे कलावादियों का प्रवेश बहुत बडा संकट है । लोकधर्मी चेतना और रचना दोनो स्तरों पर इन लोगों ने अकादमी , विश्वविद्यालयों , सरकारी पैसों , और कारपोरेट आयोजनों के बल पर कब्जा कर लिया है । और वास्तविक लेखन की समझ को धूमिल कर सब कुछ कलावाद और अयथार्थवाद की ले जा रहे हैं ।इस स्थिति ने दो चेहरे वाले दोहरी विचारधारा के लेखक हिन्दी में पैदा कर दिए हैं । साल भर अपने आपको वामपंथी कहेगें और सरकारी आयोजन व कारपोरेट आयोजनों में बडी मस्ती से पहुँचेगे । राजा फाऊन्डेशन के युवा समागमों में देखिए अपने आपको वामपंथी कहने वाले सैकडों युवा कवियों की भीड आपको दिखाई देगी ।दिल्ली के युवा कवियों का क्या कहना अशोक बाजपेयी और बडे प्रकाशक व अकादमी अध्यक्ष का चेला बनने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं । दिल्ली के बाहर के भी नकली युवा लेखक इन सबसे प्रभावित दिखते हैं । ये सब ऐसे लोग हैं जिनकी रचनाधर्मिता और प्रतिबद्धता दोनो कमजोर हैं । ये लोग कैरियरिस्ट और पुरस्कार के लोभी हैं । अपने लेखन की बजाय बाजार और विज्ञापन का माध्यम खोज रहे हैं । अस्तु इन लेखकों की बदौलत आप साहित्य की वास्तविक प्रवृत्तियों को नही खोज सकते हैं । इनके पास अपना क्या है ? न भाषा है । न चेतना है । न सामाजिक यथार्थ की समझ है कविता इनके लिए मैगी मसाला और चटपटी नमकीन की तरह है ।

यही कारण है दिल्ली के सभी युवा कवियों की कविताएँ एक जैसी दिखाई देती हैं । और मजे की बात यह है कि सभी एक दूसरे पर चोरी के आरोप भी लगाते रहते हैं । अब तक जितनी भी चोरी की घटनाएँ सुनाई पडी वह सब दिल्ली मे ही क्यों घटित हुई आरोपी भी दिल्ली का और मूल कवि भी दिल्ली का  आखिर क्यों ? । दर असल जब अपने पास कोई भाषा नही होती , न यथार्थ संवेदना होती है , न जीवन बोध होता है महज कलात्मक लफ्फाजी होती है तब सभी कविताएं एक जैसी आती हैं । इसीलिए मै समकालीन कलावाद को दोहराववाद कहता हूँ । हर कविता दोहराई जा रही है । कोई भी कविता मौलिक नही है । इस पूरे खेल में दिल्ली की कारपोरेट पत्रिकाओं का भी बडा हाथ है ।हर पत्रिका के पास अपना लेखक समूह है उन्ही को छापेगी उन्ही पर छापेगी ।

ऐसी स्थिति मे मौलिकता और वैचारिकता की बात बेमानी हो जाती है । अधिकांश पत्रिकाएं कूडा कचरे को छाप रही है इसलिए इनका विस्तार कम हो रहा है । पत्रिकाएं पतन की ओर बढ रही है और इनकी इस आदत के खिलाफ लोक की लघु पत्रिकाओं का चलन बढा है वह लोग आक्रमण के साथ साथ रचनात्मक नयापन भी दे रहे हैं और एक नया लेखक समूह सामने लाकर इन पत्रिकाओं को हर स्तर पर चुनौती पेश कल रहे हैं । इधर सात आठ सालों में जिन पत्रिकाओं का पतन हुआ उनमे हंस , नया ज्ञानोदय , पाखी , नयापथ , पहल , आलोचना आदि प्रमुख हैं ।

यदि इन तमाम छद्मों को चिन्हित करते हुए विश्वविद्यालयी आलोचना के भ्रम जाल से निकलकर साहित्य की कुत्सित राजनीति से पृथक होकर जीवन और विचारधारा के आधार पर कविताओं का विश्लेषण हो तो समकालीन कविता की मूलभूत प्रवृत्तियों की पहचान की जा सकती है। सवाल उठ सकता है कि विश्वविद्यालय और अकादमियों की अवहेलना क्यों करें ? इसका उत्तर यही है इन संस्थाओं मे साहित्य के नव उपनिवेशवाद का असली सच और उसके अभिलक्षण साफ़ दिखाई दे रहे ह़ै । कलावादी आधुनिकतावादी , अमौलिक भाषा का गढ बन चुके हैं और दूसरी समस्या है कि एकेडमिक आलोचकों मे लगभग यह आम सहमति है कि साहित्य दिल्ली मे ही लिखा जाता है । दिल्ली की पत्रिकाओं मे ही छपता है और दिल्ली के मठ व खेमे ही साहित्य के होने या न होने के निर्णायक हैं ।

इनकी नजर दिल्ली के बाहर कभी नही जाती है ।और यह कुप्रचारित करते हैं कि दिल्ली के बाहर लिखा जाने वाला साहित्य दोयम दर्जे का है । यह सोच अभिजात्य है इस विचारधारा के बूते आप कविता की समकालीन चिन्तनधारा का आध्ययन नही कर सकते हैं ।संकुचित सोच , सीमित परिक्षेत्र और अपने चहेतों के आधार पर किसी युग को परिभाषित कर देना युग अभिलक्षणों को तय कर देना सरासर गलत है और अतार्किक भी है ।अभी तक यही होता रहा है अभी भी अकादमिक आलोचना यही कर रही है इसी का प्रतिफल है कि नरेश सक्सेना , मंगलेश डबराल , मदन कश्यप , एकान्त श्रीवास्तव जैसे लोग बढा चढा दिए गये और विचारधारा कवि की चेतना व मौलिकता का ध्यान रखे वगैर जबरिया इन्हे बेसिर पैर की परम्परा से जोड दिया गया । मदन कश्यप को केदार सम्मान मिलना , नरेश सक्सेना को नागार्जुन सम्मान मिलना , और अशोक बाजपेयी द्वारा मुक्तिबोध को मेरा कहना ज्ञानपीठ द्वारा इस ठेकेदारी को स्वीकार किया जाना इसी खेल का उदाहरण हैं ।इस बेसिर पैर की राजनीति म़े लेखक संगठनों के नेतृत्व की सन्दिग्ध भूमिका है वह लोग भी अपने कैरियर और पद , विदेश यात्रा , बडे प्रकाशन , व बडी पत्रिका हथियाने के चक्कर में बुर्जुवा आवैचारिक गैर प्रगतिशील लेखकों का गुणगान करते हैं और उनके चरणों में नतमस्तक रहते हैं । प्रगतिशील लेखक संगठन का चण्डीगढ आयोजन अशोक बाजपेयी की सरपरस्ती मे हुआ । लेखक संगठनों के इस दोहरे चरित्र का इससे बडा उदाहरण क्या होगा ।

अस्तु हमे कविता पर छाए इस नव पूँजीवादी आधुनिकतावादी संकट के मद्देनजर आज की कविता को परखना होगा । हमे संकुचित वृत्ति से बचते हुए पत्रिकाओं ,संस्थाओं , कारपोरेट आयोजनों , व साहित्य अकादमी , ज्ञानपीठ ,व पुरस्कार दाता जेबी संस्थाओं द्वारा फैलाए गये विभ्रमों से बचना होगा ।तभी समकालीनता का अर्थ और समकालीन सरोकारों व प्रवृत्तियों का निर्धारण किया जा सकता है ।वरिष्ठ आलोचक नीलकान्त ने मुझसे बातचीत के दौरान कहा था कि “उदार पूँजी और सत्ता के आकर्षण से दूर पलकर बढने वाला लेखन ही सच्चे अर्थों में समकालीन होता है  दो चार महानगरीय कवियों और प्रकाशको व पत्रिकाओं के आधार पर समकालीनता का निर्धारण करने वाले साहित्य की मूलभूत प्रवृत्ति को कभी नही पकड सकते हैं इसके लिए हमे वास्तविक जीवनबोध द्वारा लिखा गया वास्तविक साहित्य व्यापक तौर पर देखना होगा”।

समकालीन काव्य चेतना की परख परम्पराबोध और युगबोध दोनो की साझा समझ द्वारा होती है । परम्परा हमें प्रतिमान देती है तो युगबोध टूल्स उपलब्ध कराता है । आज युग है वैश्वीकरण और न्यू लिबरिज्म का तो परम्परा लोकधर्मिता और विचारधारा । आजकल प्रतिरोध को लेकर बडी बडी सैद्धांतिक बातें हो रही हैं मगर प्रतिरोध केवल भाषा में है और कविता इसी भाषा में लिखी जा रही है ।

समकालीन काव्य चेतना की परख परम्पराबोध और युगबोध दोनो की साझा समझ द्वारा होती है । परम्परा हमें प्रतिमान देती है तो युगबोध टूल्स उपलब्ध कराता है । आज युग है वैश्वीकरण और न्यू लिबरिज्म का तो परम्परा लोकधर्मिता और विचारधारा । आजकल प्रतिरोध को लेकर बडी बडी सैद्धांतिक बातें हो रही हैं मगर प्रतिरोध केवल भाषा में है और कविता इसी भाषा में लिखी जा रही है । बुर्जुवा अर्थशास्त्र को जन सामान्य के जीवन सन्दर्भों में परखना बहुत कम हुआ है फिर भी कुछ कवि इस सन्दर्भ में बहुत अच्छा लिख रहे हैं सन्तोष चतुर्वेदी का कविता संग्रह “दक्खिन का भी अपना पूरब होता है” शम्भु यादव का “एक नया आख्यान” सरला माहेश्वरी का “लिखने दो” हरेप्रकाश उपाध्याय का “खिलाडी दोस्त” बली सिंह का “,अभी बाकी है” आदि आज के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र दोनो को साथ लेकर चलते हैं । इसके साथ ही कुछ कवि ऐसे है जो अपनी जमीन अपने गाँव और अपने परिवेश की घटनाओं व असंगतियों के आधार पर वैश्विक समझ को व्यख्यायित कर रहे हैं । इन कवियों ने “लोक” की सुखबोधक अवधारणा से कविता को विमुक्त किया है और लोक को तमाम वैश्विक बदलावों व अवमूल्यन के सन्दर्भ में परखा है ऐसे कवियों मे भरत प्रसाद का एक पेढ की आत्मकथा , सुधीर सक्सेना की धूसर मे बिलासपुर , विजेन्द्र का बेधर का बना देश , महेश पुनेठा का पंछी बनती मुक्ति की चाह , हुकुम ठाकुर का ध्वनियों के मलबे से , जितेन्द्र कुमार का काले रंग के पक्ष में , नासिर अहमद सिकन्दर का अच्छा आदमी होता है अच्छा बेहतरीन बन पडे हैं । कुछ कवि ऐसे भी हैं जिनका कोई कविता संग्रह नही आया मगर वह भी अपनी जमीन पर टिककर हिन्दुस्तान को देख रहे हैं ऐसे कवियों में प्रेमनन्दन , गणेश गनी , प्रद्युम्न कुमार , चिन्तामणि जोशी , किशन लाल , का नाम लिया जा सकता है । इधर अस्मिता के सवालों को लेकर बहस हो रही है अस्तु लोकधर्मी कवियों ने भी इस सन्दर्भ में यथार्थवादी रचनाएं की हैं और अस्मिताओं को लेकर जिस तरह की सैद्धांतिकी महानगरीय मध्यवर्ग द्वारा प्रसारित की जा रही है उसके विरुद्ध एक रचनात्मक कोशिश की गयी है ।

आम्बेडकरवादी अवधारणा को लेकर असंग घोष और किशन लाल ने बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं जो हिन्दी मे लोकधर्मी दलितवाद का उदाहरण है । इसी तरह परम्परागत महानगरीय स्त्रीवाद को अस्वीकार करने वाली कवयत्रियों की बडी संख्या इस समय काम कर रही है इनका स्त्रीवाद हक और भागीदारी की माँग करता है और स्त्री को  श्रम मूलक अस्मिता कहता है ऐसी कवयत्रियों में प्रज्ञा रावत , पंखुरी सिन्हा , गायत्री प्रियदर्शिनी , सीमा संगसार ,सरला महेश्वरी , सन्ध्या नवोदिता , आदि हैं ।इन दो अस्मिताओं के अतिरिक्त बाल अस्मिता और पर्यावरण अस्मिता पर भी बात की जा रही है भास्कर चौधुरी , कमलेश्वर साहू , ने बच्चों पर उम्दा कविताएं लिखी हैं तो नीलकमल , बृजेश नीरज , भरत प्रसाद , घनश्याम त्रिपाठी, शहंशाह आलम , ने पर्यावरण को लेकर कविताएं लिखी हैं  । इस दौर मे फासीवादी उत्थान के मद्देनजर युवा कवियों ने मिथकों और किंववदन्तियों की भी व्यख्या का जोखिम उठाया है ऐसे कवियों में राजकिशोर राजन , योगेन्द्र कृष्णा , शरद कोकाश , नवनीत पाण्डेय प्रमुख हैं ।समकालीनता की पहचान इन कवियों और इनकी रचनाओं के स्वर से हो सकती है ।आज चार पीढियों के कवि कविता लिख रहे हैं लेकिन “समकालीनता” की सीमा में वही आ सकता है जो आज की समस्याओं और जीवन बोध को लेकर लिख रहा हो जैसे विजेन्द्र और सुधीर सक्सेना लिख रहे हैं अस्तु वह समकालीन हैं ।

नरेश सक्सेना , मंगलेश डबराल , आलोक धन्वा , विष्णु खरे , केदारनाथ सिंह आदि कवि अपने अपने दशकों की जकडबन्दी से मुक्त नही होना चाहते हैं तो वह समकालीन कैसे रहेगें  ? इसी तरह कुछ कवि अपनी भाषा और लहजे को नही बदल पा रहे वह आज भी पुरानी अभिरुचियों का पिष्टपेषण कर रहे हैं जैसे राजेश जोशी , लीलाधर मंडलोई , कुमार अम्बुज , आदि कवि अस्तु इनको भी समकालीनता के दायरे मे रखना व इनकी रचनाओं के आधार पर समकालीनता को परिभाषित करना उचित नही कहा जा सकता है ।समकालीनता का निर्धारण युग और परम्पराबोध के आपसी समन्वय से ही सम्भव है। बशर्तै तमाम किस्म के साहित्यिक विभ्रमों से खुद को मुक्त रखा जाए ।

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