परिचय:-डॉ अफरोज आलम उर्दू के प्रख्यात विद्वान,गल्फ उर्दू कॉउंसिल के अध्यक्ष हैं।ये मूल रूप से बिहार के गोपाल गंज के रहने वाले हैं लेकिन वर्तमान में जदाह सऊदी अरब में रह रहे है।
ये गजलकार, कवि तथा उर्दू साहित्य में जाना पहचाना नाम हैं।इनकी शिक्षा गोपालगंज से हुई है।
इन्होंने देश की नामचीन शायरा चांदनी पांडेय की प्रकाशित होने वाली पुस्तक के लिए चांदनी जी के शायरी और उनके जीवन परिचय से सन्दर्भित चंद मज़मून इस पुस्तक के लिए लिखा है ।जिस में चांदनी जी के सम्पूर्ण साहित्यिक दृष्टिकोण,उनके शायरी ने किस तरह सिर्फ भारत हीं नही बल्कि ग्लोबल स्तर पर उनके व्यक्तित्व और रचनाशीलता को स्थापित किया है। उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व और उनकी कृतित्व की व्याख्या की है, प्रस्तुत है चांदनी जी के रचनाशीलता पर डॉ अफरोज आलम जी का नजरिया और चांदनी का संक्षिप्त परिचय.
– सम्पादक
इतिहास के पन्नों पर कुछ वाक़आत और हादसात को दर्ज करते हुए खट्टी मीठी चंद यादें देकर रफ्ता- रफ्ता 21वीं सदी की दूसरी दहाई भी बीती हुई सदी का मलबा हो गई। 4G की रफ्तार से दौड़ती और भागती हुई इस डिजिटल दुनिया में अब कुछ भी अजीब नहीं लग रहा है। यही कोई 2008 का साल रहा होगा, जब फेसबुक के सहारे चांदनी पांडे से बर्क़ी और अदबी दोस्ती हुई थी, लेकिन आज जब मैं इस मज़मून को लिखने से पहले अपने ज़हन के दरींचे से माज़ी का नजारा करने लगा तो तमाम तर याददाश्त के मुताबिक़ हम लोग अब तक सिर्फ 4 बार ही मिले हैं।
दो बार भारत में और दो बार भारत से बाहर। ताहम टेलिफोनिक गुफ्तगु और मुसलसल फेसबुक पर आपका कलाम पढ़ता रहा हूं जबकि इस मज़मून को लिखने के लिए मैंने दो दर्जन कलाम मंगा लिया हैं जिसकी बुनियाद पर इंशाल्लाह इस मज़मून में गुफ़्तगु करने की कोशिश करूंगा।
खानदानी कागजात के मुताबिक़ चांदनी पांडे का बुनियादी ताल्लुक़ बिहार के सारन (कमिश्नरी) इलाक़े से है इसलिए आपकी मातृभाषा भोजपुरी है, ताहम आपका परिवार रोज़ी-रोटी की तलाश में आपके पिता मोहतरम प्रेम प्रकाश त्रिवेदी और माताश्री छाया त्रिवेदी के साथ यूपी और मध्य प्रदेश के मुख़्तलिफ शहरों में अपना निवास बदलता रहा, इसलिए चांदनी पांडे की पैदाइश 2 मार्च 1975 को मध्य प्रदेश के शहर जबलपुर में हुई जबकि आपकी इब्तिदाई तालीम से लेकर हिंदी में मास्टर की डिग्री और बी.एड तक की तमामतर तालीमात कानपुर मे ही पूरी हुई है।
उसके बाद सन् 1994 में मोहतरम वीरेंद्र पाठक से शादी के बाद कानपुर को ही अपना घर बना लिया, इस तरह आपको असली कानपुरीया भी कह सकते हैं ।
चांदनी पांडे ने शायरी में अपने ख्यालात और जज्बात के इजहार के लिए उर्दू का इंतखाब किया, जब के लिपि के लिए देवनागरी को तरजीह दिया है और तह्तुल-लफ्ज़ में शायरी को पढ़ते हुए सिर्फ भारत के शहरों में ही नहीं बल्कि कुवैत और मस्कत में होने वाले आलीशान मुशायरे में भी अपनी फिक्र से फन के चिराग रौशन किए हैं। अब आप दो क़ाबिल बेटियों की माता हैं।
दरमियानी कद काठी की खूबसूरत शायरा, चांदनी पांडे ने अपनी मेहनत के दम पर उर्दू शायरी के निगार ख़ाने में अपनी अहमियत को खूबसूरती से मनवा लिया है, आपकी डायरी में ख़ूबसूरत ग़ज़लों का अच्छा खासा ज़ख़ीरा मौजूद है जो औरत के अहसासात को बयान करने के लिए कोमल जज़्बात की तर्जुमानी करता है। उर्दू अदब के मायानाज़ और मुमताज़ फ़िक्शन निगार स्वर्गीय मुंशी प्रेमचंद ने अपने नावेल कर्मभूमि में लिखा है कि :- ‘मर्दों में थोड़ा सा जानवर पन होता है जिसे वह चाह कर भी हटा नहीं सकता यही जानवर पन उसे मर्द बनाता है। ज़ेहनी तरक़्की़ के सिलसिले में वह अभी औरतों से पीछे है जिस दिन वो पूरी तरह से तरक्की कर लेगा वह भी औरत हो जाएगा’ प्यार, दुलार नाज़ुकी, रहम वगैरह की बुनियाद पर यह ब्रह्मांड ठहरा हुआ है और यह औरतों की ख़ुसुसियात है अगर औरत इतना समझ ले तो दोनों (औरत और मर्द) की जिंदगी सुखी हो जाए।
औरत जानवर के साथ जानवर हो जाती है तब दोनों दुखी होते हैं।’
कोमल अल्फ़ाज़ के सहारे चांदनी पांडे शायरी के सनमकदे में मोहब्बत की देवी नजर आती है, उन्होंने अपनी शायरी से भरपूर औरत होने का सबूत दिया है आप की गजलें अपने पाठकों को अपने धारे में बहा ले जाती हैं। आपकी ग़ज़लों में दुनिया के बदलते तेवर, समाजी मसअले व इंसानी मरासिम, मुहब्बत की शिद्दत और कसक के साथ शेर में कुछ नया बरतने का हुनर भी दिखाई देता है क्योंकि ग़ज़ल अपने ज़माने से निकल कर बहुत आगे आ चुकी है जहां नये इज़हारे ख़्यालात की ज़मीन तैयार मिलती है। ये शेर देखें-
मैं केनवस के सफेद तल पे उकेर देती हूं दो परिंदे
मुहब्बतों की सज़ा में जो थे असीर, उनको उड़ा रही हूं।
वाह! क्या तसव्वुर है ..?
इश्क़ सदा ही दुनिया की नज़र में ऐतराज़ का सबब रहा है जबकि ये भी सच है कि दुनिया का वजूद भी इसी एक जज़्बे से क़ायम है फिर भी इसे बंदिशों का सामना हर युग में करना पड़ा है।
सियासतदानों ने अवाम को अपने लिए इस्तेमाल किया इसका खामियाज़ा भी आम जनता ने उठाया कि ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति अंग्रेज़ों की ही नहीं हमारी सियासत का भी अहम हिस्सा हो गई है।
इस शेर में यही इशारा मिलता है-
हम एक दूसरे की नफ़रत में ख़ाक होते रहे
हमें कहीं का न छोड़ेगा जात-पात का दुख।
एक शेर है जिसमें गिलास को क़ाफिये में ख़ूबसूरती से पिरोया गया है,आप भी देखें-
उसके लबों पे मेरी तरह प्यास-प्यास है
इक ज़िन्दगी मिली भी तो ख़ाली गिलास है।
इस रंग बदलती दुनिया में हर रोज़ एक नई ख़बर से दो चार होते हैं हम, थोड़े और हैरान होते हैं, थोड़ी और वहशत बढ़ जाती है।
कितनी तब्दील हो गई दुनिया
कौन से दिन ग़ज़ब नहीं होता।
एक वक़्त आता है जब सुख-दुख के तराज़ू के दोनों पलड़े समान वज़न पर आकर ठहर जाते हैं। जहां न ख़ुशी कोई हलचल पैदा करती है और न ग़म कोई अफ़सोस। यही ख़्याल शायरा से ये शेर कहलवाता है-
एक मुद्दत से उसे देखा नहीं
अब मगर काजल मेरा बहता नहीं।
मुहब्बत भी क्या शै है……हो तो भी एक बेकली ,न हो तो भी एक मलाल।
तुम जो होते तो बात कुछ होती
अब के बारिश तो सिर्फ़ पानी है।
इंसानी फितरत और क़ुदरत का अजब सा नाता है, दिल की कैफ़ियत के हिसाब से ही मौसम के मिजाज़ से तालमेल बैठता है।
किसी भी रिश्ते का निबाह बहुत सी बातों को दरगुज़र करके ही होता है अगर मुहब्बत है तो-
तेरे हर झूठ को सच मान लेते हैं हमेशा हम
हमें भी रस्में उल्फ़त को निभाना ख़ूब आता है।
ऐसा भी होता है जब अपनी अहमियत दरकिनार कर , अपनों के लिए ख़ुद को न्योछावर कर देता है इंसान।
वो जिस चराग़ के दम से मकान रोशन था
उसी चराग़ को ख़ुद अपनी रोशनी न मिली।
दूसरों के लिए जीना, ज़िन्दगी का एक बड़ा फ़लसफ़ा है और जो ग़ाफ़िल हैं उनकी क्या कहें-
जिसने ग़फ़लत में उम्र गुज़ारी अपनी
वो कभी नींद से बेदार नहीं हो सकता।
वक़्त कभी एक सा नहीं रहता।अर्श से फ़र्श पर आने में देर नहीं लगती।सल्तनतें बिखर जाती हैं, परिवार टूट जाते हैं तभी शायरा कहतीं हैं-
एक घड़ी की टिक-टिक पूरे घर को बांधें रखती थी
बदला ऐसा की पुर्ज़ा-पुर्ज़ा टूट गया।
इंसानी ज़िंदगी में कोई एक मंज़िल आख़री पड़ाव नहीं होती बल्कि ये लगातार चलने वाला सिलसिला होता है जो आख़री सांस तक आदमी के साथ चलता है-
खुली आंख मंन्ज़िल पे आके अचानक
कि मंन्ज़िल से आगे भी कुछ मंन्ज़िलें हैं।
कुल मिलाकर ग़ज़लें मुतास्सिर करतीं हैं और शायरा से उम्मीद जगाए रखतीं हैं कि उनका कलाम इसी तरह लुत्फ़ अंदोज़ करता रहेगा।
इस काव्य के प्रकाशन पर मैं दिल कि अथाह गहराइयों से प्रकाशक और शायरा को मुबारकबाद पेश करते हुए यह उम्मीद करता हूं के के पाठक चांदनी पांडे की शायरी से खूब-खूब लुत्फअन्दोज़ होंगे और अपनी प्रतिक्रियाओं से शायरा को अवगत कराएंगे…..
पंडित आनंद जुतषी (गुलजार देहलवी) के चार पंक्तियों के साथ मैं अपनी कलम को विराम देता हूं …….
दरसे उर्दू जबान देता हुँ
अहले ईमाँ पे जान देता हुँ
मैं अजब हूं इमाम ऊर्दु का
बुतकदो मे अज़ान देता हूं
डॉ अफरोज आलम
अध्यक्ष:-गल्फ उर्दू कॉउंसिल, सऊदी अरब