पुस्तक समीक्षा
समीक्षक:-राजीव कुमार झा
यह युग रावण है
( कविता संग्रह )
रचनाकार:- सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘
प्रकाशक
अयन प्रकाशन
1/20, महरौली, नयी दिल्ली 110030
मूल्य:250:00 रुपये
” ढलता सूरज
ऊषा को लपेटे
जंगल में खो गया
यह क्या हो गया…
कुंती द्वार पर आयी
दस्तक भिजवायी
कोई आवाज नहीं आयी
सूरज बेगाना हो गया…
रोज सिसकती है
कुंती
रोज मंदोदरी का क्रंदन
नया कुछ भी नहीं
बस सीता का
फिर
हरण हो गया…
रावण का एक
कर्म अभिशप्त
युग युगांतर के लिए
निर्णय कर गया
हर साल मुखाग्नि मिली
पर क्षमा नहीं मिली…
यह सतयुग
का पहर है
साथियो…
यहां सीता का हरण
यहां सतीत्व का हनन
यहां मनुष्य की हत्या
तक माफ है
सब निषपाप है…
( नया सतयुग )
सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी ‘ के प्रस्तुत कविता संग्रह ‘ यह युग रावण है ‘ को पठनीय काव्य कृति के रूप में देखा जा सकता है और इसमें कवयित्री ने समाज में नारी जीवन से जुड़े सवालों को शिद्दत से उठाया है और कविता में इस दौरान दर्ज होने वाली उनकी तल्ख टिप्पणियां समाज में प्रचलित परिस्थितियों के अलावा
शास्त्रों में दर्ज नारी जीवन विषयक चिंतनीय प्रसंगों के अलावा कवयित्री के एकाकी मन के विविध कोनों अंतरों में पसरे ठहराव जड़ता ऊब और संताप के अनेकानेक संदर्भों को अपनी संवेदना में समेटती हैं ।
सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘ की कविताओं में अभिव्यक्ति का दायरा अत्यंत व्यापक है और इसमें जीवन के यथार्थ की मार्मिक अभिव्यंजना हुई है और वह पिछले कुछ दशकों से अपने देश की धरती से दूर अमरीका में रह रही हैं और उनके लेखन में विस्थापन की यह पीड़ा अक्सर उनके साहित्य में किसी स्मृति दंश के रूप में दस्तक देती प्रतीत होती है। इस संग्रह की कविताओं में अपने देश की धरती के प्रति असीम लगाव और संस्कृति के प्रति प्रेम का भाव गहराई से प्रकट हुआ है। साहित्य
जीवन की विवेचना के रूप में मानवीय अनुभूतियों और संवेदनाओं को जब विचार और चिंतन का रूप प्रदान करता है तो उसमें स्वभावत: सृजन के साथ संवाद की प्रवृत्तियों का समावेश भी होता है। सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘
का साहित्य लेखन इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है और इसके विस्तृत फलक पर नारी मन की आहट और स्पंदन भी बेहद जीवंतता से उनकी अनगिनत कथा कहानियों में आकार ग्रहण करता दिखाई है।
साहित्य जीवन के प्रति मानव मन के शाश्वत भावों की आत्मिक अभिव्यक्ति माना जाता है और इसी संदर्भ में समय और समाज के साथ भी उसमें संवाद के गुण समाहित होते हैं। सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘ का साहित्य अपने
प्रतिपाद्य में लेखन के इन तमाम पहलुओं से सदैव रूबरू होता प्रतीत होता है और वर्तमान जीवन की विसंगतियों के प्रति भी इसमें प्रतिकार का स्वर प्रकट होता है।
इन्होंने अपनी कहानियों और कविताओं में नारी मन प्राण के सहज रंगों को भी अत्यंत आत्मीयता से उकेरा है और इसमें नारी के आत्म और लोक की विवेचना का स्वर संस्कृति और सभ्यता के विविध आयामों को
वैचारिक धरातल पर प्रतिष्ठित करता है। इस दृष्टि से सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी ‘ के प्रस्तुत कविता संग्रह ‘ यह युग रावण है ‘ में संकलित कविताओं की
विवेचना समीचीन है ।
साहित्य में किसी भी कृति का शीर्षक स्पष्टत: उसकी रचना के निहितार्थों को प्रकट करता है और
यहां इस स्तर पर कवयित्री के काव्य लेखन से जुड़े युगीन सरोकार भलीभांति अभिव्यक्ति के सरोकारों से सबको अवगत कराते प्रतीत होते हैं। सदियों से हमारे साहित्य में रावण समाज – संस्कृति के संदर्भ में अधर्म और अनीति के पर्याय के रूप में देखा जाता रहा है और उससे सतत संघर्ष का स्वर ही हमारी जीवन चेतना का सबसे सशक्त स्वर रहा है। प्रस्तुत कविता संग्रह में सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘ की संकलित तमाम कविताएं अपने अर्थ, अभिप्राय और आशय में विलक्षण अर्थों की प्रतीति कराने
वाली रचनाएं कहीं जा सकती हैं जो समकालीन हिंदी नारी कविता लेखन को विशिष्ट पहचान प्रदान करती हैं।
” निनादों से
झंकृत
होता रहता है
ताल बेताल
मेरा…
डूब अडूब
शंख ढोल
नगाड़
सहित समस्त
अंतरिक्ष…
झकझोर कर
तांडव
नर्तन करने लगती
हैं …
नख शिख
मेरी इन्द्रियां
एक अबूझ
सवाल के साथ…।
( अबूझ )
कविता सदैव अपनी रचना से हमारे समक्ष जीवन के रहस्यों को अनावृत करती रही है और इस दृष्टि से नारी के सहज मन प्राण से नि:सृत स्वर अपने राग विराग में जब जीवन की विषमताओं से उपजे विचलन को कविता में जब भाव विचार का रूप प्रदान करते हैं तो यहां कविता मनुष्य की जीवन यात्रा के विभिन्न पहलुओं से जुड़ी बातों को अपने कैनवास पर प्रस्तुत करती है। सुदर्शन ‘प्रियदर्शिनी’ के काव्य चिंतन में
इसे भलीभांति देखा – जाना जा सकता है।
” इतने भरे भरे
घर में
ऐश्वर्यों सहित
रहते हुए
जहां कांटा भी
न लगे
जहां हाथ भी
न दुखे
जहां पालने पड़े
शिशु का सा
मखमली आभास हो
बाहर भीतर
सुख ही सुख
ऊपर नीचे
मसनदी मखमल
बिछे हों
और कहीं
स्वप्निल आकांक्षाओं को
पूर्णता से भरते हों
वहां भी मन
कहीं कैदी सा
बंधा हुआ
सुदूर अपनी माटी से
बंधा हुआ
सुबकता कुछ कहता हो
तो समझो वतन की
याद आई है…।
( प्रवासी मन )
सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘ की कविताओं में जीवन का यथार्थ और इसके विभिन्न आयामों का अवलोकन काव्यानुभूतियों को सदैव विस्तार प्रदान करता है और
कवयित्री के हृदय के उद्गारों में जीवन की विभिन्न परिस्थितियों के प्रति उसके मन के सहज निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति यहां हुई है ।
कविता की भाषा बिम्ब प्रधान होती है और अक्सर उसकी सहजता और सरलता में ही जीवन के यथार्थ का प्रतिपादन भी मुमकिन हो पाता है। सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘ की कविताएं अपनी इस शिल्प संरचना में बेहद पठनीय हैं और इनमें पौराणिक आख्यानों से जुड़े मिथकों के माध्यम से कवयित्री वर्तमान युग के तमाम संत्रासों और भटकावों के बीच जीवन के संघर्ष पथ पर विचरती प्रतीत होती है और कविता में अनुभूतियों की ऊष्मा से जीवन के सच्चे राग विराग को प्रदीप्त करने में संलग्न होती है।
अपने इस कलेवर में सुदर्शन ‘ प्रियदर्शिनी ‘ की कविताओं में
जीवन और जगत के प्रति गहन आस्था के भावों की अभिव्यक्ति हुई है और इसमें कवयित्री अपने
जीवन में कायम बाहर – भीतर की धुंध को आत्मिक अनुभूतियों की रोशनी से निरंतर
मिटाती उससे आगे राह गढ़ती कविता को जीवन के पथ पर प्रवहमान करती है ।