पुस्तक समीक्षा
रक्तबीज आदमी है
कवि- मोहन सपरा
आस्था प्रकाशन 89,न्यू राजा गार्डन, मिट्ठापुर रोड
जालंधर ( पंजाब)
मोबाइल नंबर:981452
समीक्षक:- राजीव कुमार
वर्तमान हिन्दी कविता लेखन में मोहन सपरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है और सक्रिय काव्य लेखन से साहित्य सृजन की दुनिया में उनकी उपस्थिति सदैव महसूस की जाती रही है।
उनके अनेकानेक कविता संग्रहों का प्रकाशन हुआ है और इनमें संकलित कविताएं समय और समाज के साथ गहरे वैचारिक सरोकारों को प्रकट करती हुई संवेदना और अनुभूति के धरातल पर मनुष्य की जिजीविषा को विस्तार प्रदान करती हैं। इस प्रसंग में उनके कविता संग्रह ” रक्तबीज आदमी है” की चर्चा भी समीचीन है।मोहन सपरा मूलतः आत्मिक अनुभूतियों के कवि माने जा सकते हैं और इनकी कविताएं अपनी इन्द्रधनुषी छटा से
निरंतर संकटों से घिरते इस संसार में मनुष्य के एकाकी होते होते जाते जीवन संसार की व्यथा के बीच आदमी की जीवन यात्रा में विश्वास के बीजों को बोती हुई तमाम मौसमों के हाल का बयान करती हुई बेहद तल्खियत से समय के साये में देश में और समाज की परिस्थितियों से भी निरंतर संवाद कायम करती हैं। इस प्रकार मोहन सपरा की कविताएं यथार्थ के साथ आत्मिक अनुभूतियों को अपनी काव्य संवेदना में समेटती हुई संसार में जीवन की सुंदरता के अन्वेषण के उपक्रम के रूप में अपनी पहचान दर्ज करती हैं और यहां इन कविताओं की रचनाशीलता में भाव , भाषा और शिल्प का सहज तालमेल खासतौर पर अपनी तरफ ध्यान आकृष्ट करता है और इनको पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी गहरी विस्मृति के बीच जीवन में जो कुछ भी घटित -अघटित के रूप में हमारे भीतर – बाहर की दुनिया में निरंतर गुंफित हो रहा हो , यहां कविता के रूप में वह आकार ग्रहण करता हुआ दृष्टिगोचर होता है।
कविता में नवोन्मेष की चर्चा अक्सर होती रही है और मोहन सपरा की कविताएं इस रूप में कविता के किसी विशिष्ट आकार प्रकार में निरंतर जीवनानुभतियों की शब्दों के संसार में साक्ष्य का रूप प्रदान करती हैं -:
*यह वक्त कैसा है*
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“1.यह वक्त कैसा है
हथेलियां बैसाखियों पर हैं
और मनुष्य
एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ा है।
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2.अंधेरे में संगीत
संगीत में अकेलापन
यह वक्त कैसा है ।
युद्ध स्थल बना है ।
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3.यह वक्त कैसा है!
सरपट भागता
हर किसी को रौंदता
जीवन की परिभाषा बदल रहा है।
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4.यह वक्त कैसा है
हम दहलीज बने खड़े हैं
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5.यह वक्त कैसा है
आदमी को
अकेला अकेला बना रहा है
खुद से लड़ना सीखा रहा है।”
कविता अपनी विषय-वस्तु में जीवन के प्रति प्रेम के भावों को
प्रकट करती है और इस प्रक्रिया में इसके चतुर्दिक संकट और संघर्ष के शोर शराबे में अपने कैनवास पर फैले स्याह रंगों के बीच जीवन के प्रति नैसर्गिक प्रेम के भावों को
प्रकट करती है और इस प्रक्रिया में इसकी
सुखद सरस छाया में यहां जीवन की प्रेरणा के रूप में कविता संसार के संबोधन की तरफ़ अग्रसर होती दिखाई देती है और इसमें मनुष्य के जीवन का प्रवाहित आदिम स्वर किसी आत्मिक पुकार की तरह निरंतर सबके मन-प्राण को अपने सहज उद्बोधन से अभिभूत करता है।
मोहन सपरा की कविताओं के बारे में विमर्श के दौरान इन सब बातों को सदैव अपनी प्राथमिकताओं में दर्ज रखना होगा क्योंकि वह कविता में तमाम तरह की निरर्थक चर्चाओं और उसकी अभिव्यंजना में कृत्रिमता से दूर अपने काव्यकर्म में सदैव विचारशील बने रहने वाले एक ऐसे सजग कवि हैं जिनकी कविताएं सचमुच काफी कठिन दौर के हालातों का जायज़ा लेकर हमारे समक्ष हम उपस्थित होती हैं और जीवन के घट को आत्मा के जल से परिपूर्ण बनाकर प्रेम से आकंठ परिपूर्ण कर देती हैं। इस प्रकार मोहन सपरा की कविताओं को जीवन संधान की प्रक्रिया से उपजी कविता के प्रतिरूप में देखा जा सकता है और इनमें इस तरह से स्वाभाविक रूप से सांसारिक जीवन की हलचलों से उपजे अवगाहन का समावेश है।
मोहन सपरा की कविताएं समय और समाज की विसंगतियों से मुठभेड़ करती हैं और इनमें जीवन की विडंबना और निरंतर इसकी है दुरूह होती जाती पहेली के बीच से गुजरता कविमन यातना के भंवरजाल से बेहद चौंकन्ना होकर सच और झूठ के खेल के भीतर – बाहर जीवन के स्पंदन के साक्ष्य के तौर पर जिंदगी की माला में मन के मनकों को पिरोता हुआ काव्य की कसौटी पर अपने सृजन को सार्थक रूप प्रदान करने की बेचैनी से घिरा दिखाई देता है और इसलिए इन कविताओं में जीवन का अनुशासन और उसकी स्वाभाविक गति के रूप में मनुष्य के सहज संवाद का लय कविता की भाव भंगिमा को यहां खासतौर पर सृजनात्मक दिशा की ओर उन्मुख करता है और कविता अपने शब्दों के सामर्थ्य में गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करती प्रतीत होती है। मोहन सपरा ने छोटी और बड़ी इन दोनों प्रकार की कविताओं को सफलतापूर्वक लिखा है। किसी जमाने में उनकी लंबी कविताओं की खूब चर्चाएं हुईं लेकिन अपने शब्द प्रयोग और कविता के भीतर पद संयोजन में भावाभिव्यक्ति के धरातल पर उन्हें सूक्ष्म सहज अनुभूति और विचार शैली का कवि मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।
उनकी कविता साहित्य लेखन में प्रचलित वर्तमान दौर के
आंदोलनों की प्रचलित प्रवृत्तियों से भी बहुत दूर दिखाई नहीं देती है लेकिन इनमें वैचारिक तौर पर प्रगतिशील रुझानों का समावेश बहुत स्पष्टता से परिलक्षित होता है और यहां वे व्यवस्था की विसंगतियों को भी कविता में उजागर करने वाले कवि सिद्ध होते हैं और निरंतर समाज में अपने जीवन संघर्ष में जुटे मनुष्य
के साथ खड़े दिखाई देते हैं। संघर्ष के प्रति प्रतिबद्धता का अटूट भाव उनकी कविता की प्रधान प्रवृत्ति मानी जा सकती है और यहां उनकी कविताओं में प्रवाहित जीवनानुभतियां समाज के साथ – साथ देश को भी अपने संबोधन में शामिल करती हैं।
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