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साहित्य, संस्कृति, कला

कहानी : पगडण्डी

Byadmin

May 9, 2025
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गाँव की पगडंडी सिर्फ एक रास्ता या ग्रामीण क्षेत्र की पहचान मात्र नहीं बल्कि गाँव की उस संस्कृति का उदहारण है जहां लोगों में प्रेम सौहार्द  और अपनापन है. आज गाँव बदल रहा है, पक्की सडके और चहल पहल जिंदगी भले हीं  हमारे विकास के बुनियाद को मज़बूत कर रहा है, पर हम उस रिश्ता और आत्मीयता  को भूल रहे हैं जो हमारे ग्रामीण संस्कृति की पहचान रही. कहानीकार बलवान सिंह कुंडू सावी ने यही बतायी है, पढ़िए पूरी कहानी..

मारे गाँव में केवल प्राथमिक स्तर का विद्यालय था। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए नजदीक के गाँव में जहाँ उच्च माध्यमिक शिक्षा के विद्यालय थे वहां जाना पड़ता था। उन गाँवों को जाने वाले रास्ते ज्यादातर कच्चे होते थे जो बरसात होने पर कीचड़ से भर जाते थे और गर्मियों में उनकी रेत लू से तप जाती। ये कच्चे रास्ते घुमावदार होने के कारण लम्बे भी पड़ते थे।
इसलिए सभी छात्र खेतों के बीच बनी पगडण्डी से ही आते- जाते।

हम जिस गाँव पढ़ने जाते वहां एक छोटे से रजबाहे के पूल से पहले पगडण्डी बनी हुई थी जो सीधे हमारे गाँव को उस गाँव से जोड़ती थी। वह पगडण्डी खेतों से कोई दो फुट ऊँची और इतनी ही चौड़ी बनी थी कि जिस पर साइकिल से भी आराम से जाया जा सकता था। इस पगडण्डीसे सारा दिन लोग आते जाते रहते क्योंकि इसी में से कुछ पगडण्डी अलग निकलकर ओर दो गाँव की ओर जाती थी। कभी -कभार बहुत सी महिलाएं इक्कठी होकर लोकगीत गाती हुई जाती थी।

स्कूल से आते समय हम फुर्सत में होते और पगडण्डी पर मस्ती करते आते।
हमें खेतों में हल चलाते किसान, गीत गा -गाकर कपास चुगती और धान काटती औरतें तथा सर्दियों में गन्ने को साफ करते किसान मिलते थे। वे हमारे मांगने से गन्ने चूसने को दे दिया करते थे।

पगडण्डी के थोड़ा- सा चलने पर एक बहुत मेहनती किसान के खेत थे जो बारह महीने अपने खेत में कुछ -न -कुछ काम करते मिलते थे। उसने अपने खेत में घास -फूस का एक सुंदर छप्पर डाल रखा था जिसके तीन ओर छायादार वृक्ष थे। किसान की पत्नी हर रोज दोपहर को बैलों का चारा और उसका भोजन लाती। वह उसके काम में सहयोग किया करती थी और फिर खेत से वापिस अपने घर आती।

वह हर रोज घर आने से पहले उनके खेत से थोड़ी दूर कच्ची सड़क के पास की कूईं से तीन घड़े पानी भरती ताकि पगडण्डी से आने-जाने वाले अपनी प्यास बुझा सकें।

एक दिन दोपहर बाद जब हम स्कूल से घर वापस घर आ रहे थे। हमने देखा वह किसान अपनी पत्नी पर बैलों के लिए अच्छा चारा न लाने पर आग -बबूला होकर गलियां बक रहा था। जब वह उसको पीटने को हुआ तो सोनू नाम का लड़का उस किसान को मारने दौड़ा। सोनू हमारा लीडर था, वह हम सब में तगड़ा और उम्र में भी बड़ा था। वह दो बार दसवीं कक्षा में अनुत्तीर्ण हो चुका था। वह हम सब पर हुक्म चलाता और न मानने वाले को पीट देता। हममें से कोई भी उसके हुक्म की अवहेलना नहीं कर सकता था।

जब सोनू किसान की ओर गया तो उसकी पत्नी ने यह कह कर उसको धमका दिया कि यह उन पति -पत्नी की बात है। वैसे भी किसान की पत्नी देखने में किसान से भारी लग रही थी परन्तु उसके संस्कार उसको उल्टा जवाब देने से रोक रहे थे। झगड़ा किस बात पर है।

पूछने पर पता चला कि किसान की पत्नी अपनी बीमार माता से मिलने कल मायके गई थीऔर आज वह खेत देर से आई थी। इस कारण बैलों का चारा लाने में देर हुई थी । किसान इस बात से नाराज था कि आज उसके बैल कुछ समय के लिए भूखे रहे और आज हल समय पर नहीं जोत सकेगा और खेत सूख जाएगा।

कुछ साल बाद मैं उस किसान के खेत के पास से जा रहा था। कच्ची सड़क अब पक्की बन गई थी। अब वहां न तो पगडण्डी दिखाई दे रही थी और न ही झोंपड़ी। उस किसान और उसकी पत्नी को मैंने खेत में काम करते देखा तो मैं उनसे मिलने चला गया। अब उन दोनों की उम्र पक चुकी थी। मैंने उस किसान को पुरानी बात याद करवाते पूछा- क्या आप अब भी अपनी पत्नी पर पहले की तरह गुस्सा करते हो। उसके चेहरे पर थोड़ी मुस्कुराहट आई, वह बोला- व्यक्ति की जितनी उम्र चढ़ती रहेगी पति -पत्नी में प्रेम
और समझ बढ़ती जाती है। उस समय हमें यह सिखाया जाता था कि जो अपनी औरत को जितना दबाकर रखेगा उसका आदर उतना ही बढ़ेगा। उस समय की पास पड़ोस की औरतें और ज्यादातर माँ-दादी यही सिखाती थी। उसने कहा ये सब अच्छी बात नहीं। आजकल ये सब नहीं सिखाया जाता इसलिए पति-पत्नी में मारपीट नहीं होती। जिनके यहाँ आपस में मारपीट होती है उन्हें समाज अच्छी नज़र से नहीं देखता।

मैंने उस पगडण्डी के बारे में पूछा तो वह भावुक हो गया पिछली यादों में खो गया। वह बोला– पगडण्डी जब तक रही एक गाँव का दूसरे गाँव से मेल-मिलाप और भाईचारा कायम रहा। इस पगडण्डी से होकर तीन गाँवों के लोग जाते थे। कितनी बहु-बेटियाँ इस पगडण्डी से गहनों से सजी जाती थी पर मजाल है उन्हें कभी किसी ने कुछ कहा हो।

हमारे गाँव वाले यह कहते कि अगर कोई अकेली औरत देर -सवेर पगडण्डी से जाती मिले तो उसे उसके घर तक छोड़कर आना है और ऐसा ही होता भी था। पर अब पक्की सड़क पर भी बहु-बेटी को डर लगता है।

जहाँ इतनी चौड़ी पगडण्डी थी अब वो मेढ़ रेल की पटरी से पतली हो चुकी है।लगता है पगडण्डी अपने साथ मेल -मिलाप, भाईचारा और जीवन की सारी फुर्सत, खुशियाँ ले गई।

अब जिंदगी पक्की सड़क की भांति अंतहीन दौड़ में भागती रहती है। मैंने उस किसान से बच्चों के बारे में पूछा तो तो उसने लम्बी सांस भरते हुए कहा–बच्चे अब खेत में आना पसंद नहीं करते। वे शहरों में दुकानों पर थोड़े से पैसों के लिए दिन भर नौकरी करते हैं। उन्हें किसी पगडण्डी के रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

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