जिंदगी एक सफर है,और यह दुनिया एक मुसाफिर खाना, जिसमे लोगों का आना जाना लगा रहता है, यही शास्वत सत्य है! फिर भी कुछ लोगों का चला जाना काफी दुखदायी होता है, समाजसेवी, पूर्व शिक्षक और बेहतरीन इंसान श्यामा नन्द लाल त्यागी जी की धर्म पत्नी का निधन एक ऐसी घटना है जो एक समाज सेवी के हौसले की एक ताकत छीन गयी, पढ़िए दिवंगत नीला लाल की जिंदगी के क्या मायने थे!
(विनोद आंनद)
नी ला भाभी (नीला लाल) नहीं रही ! वह हँसता-मुस्कुराता चेहरा सदा के लिए शांत होकर, अनंत राह पर प्रस्थान कर गयी।
इसके साथ हीं आज उनकी पार्थिव देह को अग्नि को समर्पित करते ही वह पंच तत्व में विलीन हो गयी।
यह केवल एक शरीर का जलना नहीं था, बल्कि उन असंख्य स्मृतियों, उन अनगिनत पलों का भी राख में बदल जाना था, जिन्होंने अपने जीवन अपने पति, परिवार, सगे सम्बन्धियों औऱ एक शिक्षक के रूप में हज़ारों बच्चों के जीवन क़ो मधुरता से सींचा था।
आज अंतिम यात्रा का वह दृश्य आज हमारी आँखों में तैर रहा है। विद्यापति नगर से जब उनकी अर्थी निकली, तो सड़कों पर उनके अपने लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। हर आँख नम थी, हर चेहरा उदास और बोझिल।
खुदिया नदी के तट की ओर बढ़ती उस विशाल भीड़ के साथ जब अर्थी गोविंदपुर विलेज रोड से गुज़री, तो हर घर से लोग उत्सुकता और वेदना से झाँक रहे थे। एक ही प्रश्न था, जो हर होंठ से निकल रहे थे, “त्यागी जी की पत्नी नहीं रहीं?”
त्यागी जी, यानी श्यामानंद लाल त्यागी, और नीला लाल की वह जोड़ी, जो एक सफल शिक्षक, एक समाज सेवी औऱ हर अपनों के दुख दर्द में खड़े रहने वाले सख्स के रूप में समाज के लिए एक प्रेरणा थे,आज वह जोड़ी टूट गई थी।
एक ओर त्यागी जी थे, जो समाज को जागरूक बनाने के लिए, एक सशक्त नींव रखने के लिए अथक संघर्ष कर रहे थे, अपनी हर गतिविधि से समाज में चेतना का संचार कर रहे थे। तो दूसरी ओर, नीला लाल थीं, जो घर का मोर्चा संभालते हुए, अपने पति के सामाजिक सरोकारों को एक अदम्य शक्ति प्रदान कर रही थीं। उनकी उपस्थिति, उनकी ममतामयी छाया त्यागी जी के संघर्षों को बल देती थी, उन्हें हर मुश्किल में संबल देती थी।
आज इस पीड़ा के क्षण में त्यागी जी की आँखों में मुझे असीम पीड़ा दीख रहा था , उनके दर्द और जुदाई की इस अथाह पीड़ा को परखने का मैं प्रयास कर रहा था। उनकी बेटी प्रियंका के आँसुओं की धारा और अन्य परिजनों के उस चित्कार को सुनकर मेरा हृदय भी विह्वल हो उठा। यह सत्य है कि अब नीला लाल कभी लौटकर नहीं आएँगी, एक कड़वी सच्चाई बनकर हर किसी के भीतर यह उतर रहा था।
जब मोक्ष धाम में अंतिम विदाई के लिए त्यागी जी ने उत्तरीय धारण किया, तो मैंने उनके मुखमंडल पर उभरती पीड़ा और आँखों से ढुलकते अश्रुकणों को देखा। उस पल मेरा साहस टूट गया। मैं अपनी आँखों से उस पार्थिव शरीर को अग्नि के हवाले होते नहीं देख पाया। मैं बाहर आकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। श्मशान में आने के बाद किसी व्यक्ति को अपने जीवन के सत्य को इतनी गहराई से परखने का अवसर मिलता है। मृत्यु की यह भयावह और अटल सच्चाई उस क्षण सबके सामने नग्न रूप में खड़ी हो जाती है।
चीता की अग्नि धधक रही थी, और उसके साथ ही नीला भाभी के पार्थिव शरीर का अवशेष धीरे-धीरे पंच तत्व में विलीन होता जा रहा था। श्मशान के भीतर लोगों की भीड़ अलग-अलग गुटों में बैठी थी, अलग-अलग चर्चाओं में मशगूल थे। लेकिन मैं पेड़ के नीचे बैठकर कई पुरानी यादों में खो गया था, जो किसी धुंधली तस्वीर की तरह मेरी आँखों के सामने तैर रही थीं।
एक वक़्त था, जब त्यागी जी का घर हम कुछ लोगों के लिए एक वैचारिक अड्डा हुआ करता था। मैं, अमिताभ चक्रवर्ती, जयप्रकाश मिश्र, त्यागी जी, प्रो. एस.एस. गिरी और कई अन्य बुद्धिजीवी वहाँ हर दिन जुटते थे।
यहां साहित्य पर घंटों चर्चाएँ होतीं, नए विचारों का आदान-प्रदान होता। अमिताभ चक्रवर्ती हम सभी के मार्गदर्शक की भूमिका में थे। उनका बौद्धिक ओज, उनकी गहरी अंतर्दृष्टि हमें हमेशा प्रेरित करती थी।
उस ज़माने में अमिताभ चक्रवर्ती ने ‘निशांत’ जैसी संस्था की नींव रखी थी, जिसके तहत रचनाशीलता का एक नया माहौल तैयार हो रहा था। ‘निशांत’ ने गोविंदपुर जैसे छोटे से कस्बे को, जो तब धनबाद जिले का एक गुमनाम हिस्सा था उसको एक वैचारिक केंद्र बना दिया था। कई लोग, जिन्हें साहित्य में पहले कोई विशेष दिलचस्पी नहीं थी, उन्हें भी लिखने की आदत सी पड़ गई थी।
लोगों में सर्जनात्मक क्षमता का अद्भुत विकास हो रहा था। ‘निशांत’ ने लघु पत्रिका प्रदर्शनियों, साहित्य मेलों जैसे आयोजनों की शुरुआत की, और प्रत्येक सप्ताह साहित्यिक गोष्ठियाँ होने लगीं। बाद में तो ऐसा माहौल बना कि ये गोष्ठियाँ अलग-अलग जगहों पर होने लगीं, लेकिन त्यागी जी के घर पर हम लोग ज़रूर बैठते थे।
इन बैठकों में, इन वैचारिक मंथनों में, नीला भाभी की भूमिका अविस्मरणीय थी। उनके हाथों की बनी चाय और नाश्ते का प्रबंध होता रहता। इन सभी वर्षों में, मैंने कभी भी नीला भाभी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं देखी। उन्हें भी यह सब अच्छा लगता था। उनके चेहरे पर एक सहज संतोष और प्रसन्नता रहती थी, मानो इन साहित्यिक चर्चाओं और वैचारिक विमर्शों का वह भी एक अभिन्न अंग हों।
उस समय त्यागी जी की दो छोटी बच्चियाँ थीं, घर का काम, बच्चों की परवरिश, और ऊपर से हमारे वैचारिक अड्डे की आवभगत, सब कुछ वह इतनी सहजता से संभाल लेती थीं कि हमें कभी आभास ही नहीं होता था कि उन पर कोई बोझ है।इसी बैठक में कई योजनाए बनी यहां लोगों में रचनाशीलता लेखकीय क्षमता को लोगों के अंदर विकसित कर गंभीर लेखक के लिए प्रेरित करने की योजना बनी, जिसके लिए ”साहित्य सेतुः” नामक साहित्यिक पत्रिका की शुरुआत अमिताभ जी ने की, नागरिक समिति की पत्रिका ‘संकल्प’ की परिकल्पना भी हम लोगों ने यहीं की और नागरिक समिति के तत्कालीन अध्यक्ष स्व. सुरेश भगत जी के पास इसका प्रस्ताव रखा ताकि समिति के सदस्य को भी लिखने की क्षमता विकसित हो और लोग लिखने पढ़ने में अभिरूचि ले । स्व. सुरेश भगत जी ने इस में अभिरूचि लेकर तत्काल ‘संकल्प’ प्रकाशन क़ी मंजूरी दे दी ।और एक रचनात्मक दिशा में पहल शुरू हो गयी।संकल्प का कुछ अंक तो शुरुआती दौर में स्तरीय निकला जिसकी चर्चा पुरे राज्य में हुई । लेकिन आज निराशा होता है कि जिस ”संकल्प” को हम लोगों ने रचनात्मक आंदोलन के रूप में शुरू किया आज वह प्रॉक्सी लेखन के कारण उस उद्देश्य का हीं अंत कर दिया । इन सारे गतिविधियों का केंद्र त्यागी जी का घर होता, नीला भाभी के हाथों की चाय होती और त्यागी जी की कर्मठ मेहनत होता।
एक शून्य जिसे भर पाना असंभव
आज जब नीला भाभी नहीं रही, तो उन दिनों की यादें और भी कसक भरी हो जाती हैं। वह केवल त्यागी जी की जीवनसंगिनी नहीं थीं, बल्कि हमारे उस वैचारिक परिवार की आधारशिला थीं। उनकी ममता, उनकी निष्ठा, उनकी सहज स्वीकार्यता ने ही उस ‘वैचारिक अड्डे’ को एक घर का रूप दिया था। उनकी अनुपस्थिति आज उस घर में, और हम सबके जीवन में, एक ऐसा शून्य छोड़ गई है, जिसे भर पाना असंभव है।
आज गोविंदपुर का वह श्मशान घाट, जहाँ नीला भाभी का पार्थिव शरीर अग्नि में विलीन हो गया, एक स्तब्ध कर देने वाली चुप्पी ओढ़े हुए है। यह चुप्पी केवल चिता की लपटों से उपजी राख की नहीं है, बल्कि एक ऐसे युग के अवसान की है, एक ऐसे प्रकाश-स्तंभ के बुझ जाने की है, जिसने न जाने कितने जीवन को अपनी आभा से प्रकाशित किया था। नीला भाभी की स्मृतियाँ हमसब के भीतर, हमारी चेतना में सदैव जीवित रहेंगी, एक प्रेरणा बनकर, एक मार्गदर्शक बनकर।
वह अनंत यात्रा पर निकल चुकी हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति, उनकी स्मृतियों की सुगंध, हमेशा हम सबों के दिलों में बसी रहेगी।