साहित्यकार राजीव कुमार झा का बचपन संघर्षों से गुजरा, उनका पिता धनबाद में प्रशासनिक अधिकारी थे, उन दिनों वे सिंदरी में रहकर अपनी शुरुआती पढ़ाई की, पिता के निधन के बाद संघर्ष का दौर शुरू हुआ उनके बचपन से लेकर संघर्ष तक का कुछ फुटनोट यहाँ मिला जो आपके सामने है…
एक संस्मरण : राजीव कुमार झा
जी वन की सबसे मजबूत यादें अक्सर वे होती हैं, जो अकेलेपन की छांव में पनपती हैं। मेरे लिए यह छांव एक सूखे पेड़ की थी, जिसके नीचे बैठकर मैंने न सिर्फ अपना टिफिन खाया, बल्कि खुद को भी जाना, समझा और गढ़ा। यह संस्मरण मेरे बचपन के उस सफर की कहानी है, जिसमें अकेलापन, संघर्ष, छोटी-छोटी खुशियां और बड़े-बड़े सपने सब एक साथ चलते रहे।
बचपन की लंबी राहें
सिंदरी में मेरा बचपन बीता। स्कूल घर से काफी दूर था—इतना कि आठ-नौ साल की उम्र में रोज़ाना पैदल जाना और लौटना किसी रोमांच से कम नहीं था। रास्ता ऊबड़-खाबड़ था, एक जगह चढ़ाई आती थी, फिर सीधा रास्ता और अंत में शहर का गोलंबर। उस पूरे सफर में कोई साथी नहीं था—न दोस्त, न बड़ा, न छोटा। मैं खुद में ही गुम, अपने खयालों में खोया, हर सुबह स्कूल के लिए निकल जाता।
स्कूल सरकारी था, विशाल था, लेकिन मेरे लिए वह एक अनजानी सी जगह थी। मेरी क्लास से सिंदरी खाद कारखाना दिखता था, जो मुझे उस समय बहुत बड़ा और रहस्यमय लगता था। पैरों में हवाई चप्पलें थीं, जो अक्सर रास्ते में टूट जातीं या गुम हो जातीं। एक बार वार्षिक खेलकूद प्रतियोगिता में दौड़ते हुए मैंने चप्पलें उतार दीं, और जब लौटा तो वे गायब थीं। पथरीली ज़मीन पर नंगे पांव दौड़ने की जलन और छिलन आज भी याद है। शायद वही दर्द मुझे मजबूत बनाता गया।
सूखे पेड़ की छांव
स्कूल में मेरा कोई खास दोस्त नहीं था। लंच ब्रेक में सब बच्चे अपने-अपने झुंड में होते, पर मैं अक्सर स्कूल के मैदान के एक कोने में खड़े सूखे पेड़ के नीचे बैठ जाता। वह पेड़, जो न फल देता था, न छांव, फिर भी मेरे लिए वह सबसे खास जगह थी। वहीं बैठकर मैं अपना टिफिन खोलता, मां के हाथ की बनी सादी रोटी-सब्जी खाता और चुपचाप आसमान देखता। कभी-कभी लगता, जैसे पेड़ भी मेरी तरह अकेला है—सूखा, खामोश, मगर अडिग।
परिवार और जिम्मेदारियां
मेरे माता-पिता को मेरी पढ़ाई-लिखाई की चिंता तो थी, पर रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों पर वे ध्यान नहीं देते थे। शायद वे जानते थे कि मुझे खुद ही अपना रास्ता बनाना है। पिता जी अक्सर कहते, “बेटा, संघर्ष ही जीवन है।” उनकी यह बात मेरे मन में कहीं गहरे उतर गई थी। घर में मैथिली बोली जाती थी, और हमारे पूर्वज मिथिला से आकर यहां बसे थे। जमींदारों ने उन्हें जमीन दी थी, और खेती-बाड़ी से घर चलता था। साधारण, मगर आत्मसम्मान से भरा जीवन था।
दिल्ली का सफर
समय बीता, मैं बड़ा हुआ और पढ़ाई के लिए दिल्ली गया। वहां का जीवन बिल्कुल अलग था—तेज, अनजान, और कभी-कभी डरावना भी। शुरू-शुरू में मैं अपने रिश्तेदार के साथ रहा, लेकिन जल्द ही उनका साथ छूट गया। पटना के एक प्रोफेसर ने मुझे रहने का इंतजाम करवाया, और अपने राशनकार्ड पर मुझे किरासन तेल भी दिलवाया। उन दिनों मैं बंगाली मार्केट के एक छोटे से कमरे में रहता था, स्टोव पर खुद खाना बनाता, और यूनिवर्सिटी की बस से जामिया मिल्लिया इस्लामिया पढ़ने जाता।
अकेलापन और संघर्ष
दिल्ली में भी मेरा वही पुराना साथी था—अकेलापन। यूनिवर्सिटी में बहुत से लोग थे, लेकिन किसी से खास दोस्ती नहीं हुई। मुस्लिम छात्र-छात्राएं कभी-कभार बातें कर लेते, पर मैं अक्सर लाइब्रेरी में या रसियन सेंटर में फिल्में देखकर वक्त काटता। एक दिन श्रीराम सेंटर में भीष्म साहनी जी मुझे अकेला देखकर पास आए और मेरे घर-परिवार के बारे में पूछा। वह पल मुझे आज भी प्रेरित करता है—कि अकेलेपन में भी कोई आपको देख सकता है, समझ सकता है।
पिता का जाना और जिम्मेदारियों का बोझ
बीए के पहले साल में, जब मेरी उम्र 19 साल थी, अचानक पिता जी का निधन हो गया। मुझे टेलीग्राम से यह खबर मिली। मैं फौरन पीएमसीएच भागा, लेकिन वहां पता चला कि वे दो दिन पहले ही गुजर चुके थे। उस समय एसटीडी फोन की सुविधा नहीं थी, तो खबर देर से मिली। बड़हिया से गांव लौटने के लिए मैंने एक कुली को तीस रुपये देकर साथ चलने को कहा—अंधेरे और डर के कारण। उस रात की तन्हाई और डर आज भी मेरी यादों में ताजा है।
सामाजिक हलचल और आत्म-साक्षात्कार
दिल्ली में रहते हुए मैंने देश-दुनिया की हलचलों को करीब से देखा। जामिया में अमेरिकी-इराक युद्ध के विरोध में प्रदर्शन होते थे, दिल्ली यूनिवर्सिटी में आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान छात्र रैलियां निकलती थीं। मैं भी उनमें भाग लेता, लेकिन भीतर से हमेशा एक अलगाव का अहसास रहता। शायद इसलिए, क्योंकि मेरी जड़ें गांव, परिवार और उस सूखे पेड़ की छांव से जुड़ी थीं।
भाषा, पहचान और विरासत
मेरे पिता ने मुझे सरकारी स्कूल में पढ़ाया, जबकि शहर के सबसे बड़े प्राइवेट स्कूल में दाखिले की कोशिश भी की थी। लेकिन मुझे वहां की चकाचौंध कभी आकर्षित नहीं कर पाई। मैथिली मेरी मातृभाषा है, और मैंने हमेशा अपनी जड़ों को संजोकर रखा। मेरे पूर्वज मिथिला से आए थे, और उनकी संघर्ष-गाथा मेरे खून में दौड़ती है। यह पहचान मुझे हमेशा संबल देती रही।
उपसंहार : सूखे पेड़ की छांव की सीख
आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं, तो लगता है कि वह सूखा पेड़ मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा शिक्षक था। उसने मुझे सिखाया कि अकेलेपन में भी जीवन की गहराई को महसूस किया जा सकता है। संघर्ष, असुरक्षा, और तन्हाई के बीच भी उम्मीद की एक किरण होती है। हर वह बच्चा, जो स्कूल के किसी कोने में अकेले बैठा है, अपने भीतर एक पूरी दुनिया लिए होता है—सपनों, संघर्षों और संभावनाओं की दुनिया।
शायद इसी अकेलेपन ने मुझे मजबूत बनाया, अपने सपनों के लिए लड़ना सिखाया, और हर मुश्किल में मुस्कराना भी। आज भी जब कभी जीवन में मुश्किलें आती हैं, तो मन उसी सूखे पेड़ की छांव में लौट जाता है—जहां अकेलापन था, पर सुकून भी था; जहां संघर्ष था, पर उम्मीद भी थी।
अंत में
यह संस्मरण सिर्फ मेरी कहानी नहीं, बल्कि हर उस इंसान की कहानी है, जिसने अकेलेपन में खुद को पाया है। सूखे पेड़ की छांव में बैठकर मैंने जाना कि जीवन की असली ताकत भीतर से आती है—और वही ताकत हमें हर मुश्किल राह पार करने का हौसला देती है।
(राजीव कुमार झा)