स्वर्णकुमारी देबी सुप्रसिद्ध कवि-लेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन थीं। सन 1884 में उन्होंने ‘भारती’ का संपादन कार्य अपने हाथ में लिया और इस प्रकार भारत की पहली महिला संपादिका व पत्रकार के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज करा
लेखक:- राज गोपाल सिंह वर्मा
आप रवींद्र नाथ टैगौर को अवश्य जानते होंगे! प्रख्यात लेखक, कवि और चिंतक, सामाजिक कार्यों के प्रणेता, औपनिवेशिक काल में कठिन मार्ग पर चलकर अपना रास्ता बनाने और उत्कर्ष पर पहुंचे वाले भारत के पहले नोबल पुरस्कार विजेता! पर क्या आप उनसे पाँच वर्ष बड़ी उनकी बहन स्वर्ण कुमारी देबी, समाज, साहित्य और स्त्री चेतना के लिए किये गए उनके योगदान की कहानी भी जानते हैं?
शायद नहीं! तब यह किताब आपके लिए एक जरूरी अध्ययन होगा।
यह उस विदुषी महिला की जीवनगाथा है, जो औपनिवेशिक भारत के उदास माहौल में परिवर्तन का बयार बहाने के लिए उभर कर आई एक सम्मानित, सुसंस्कृत और रचनात्मक विधाओं में निपुण महिला थी।
स्वर्णकुमारी देबी सुप्रसिद्ध कवि-लेखक रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी बहन थीं। सन 1884 में उन्होंने ‘भारती’ का संपादन कार्य अपने हाथ में लिया और इस प्रकार भारत की पहली महिला संपादिका व पत्रकार के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया।
पहले बांग्ला और फिर अंग्रेज़ी भाषा के साहित्य की विभिन्न विधाओं और वैज्ञानिक लेखन को समृद्ध करने वाली वह उस काल की पहली महिला थीं जो अपने जीवन के बड़े भाग में औपनिवेशिक काल की चर्चित समाज सुधारक के रूप में भी जानी गईं। स्वर्णकुमारी देबी बंगाल की पहली उपन्यासकार और महिला संपादक थीं। उन्होंने कहानियाँ, नाटक, निबंध, व्यंग्य और यात्रा वृत्तान्त भी लिखे। उनके विषय में जितना जानिए, उतना ही विस्मय होता जाता है। वह ब्रिटिश सरकार के दमनात्मक कार्यकलापों का विरोध करती थीं, पर किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध थीं। वह जन जागृति और तार्किकता में विश्वास रखती थीं।
पहले ब्रह्मोसमाज और फिर ‘सखी समिति’ तथा महिला शिल्प कला और मेलों के आयोजन से उन्होंने बंगाल की उन महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के प्रयास किये जो तब के काल में घर की चारदीवारियों को लांघने की सोच भी नहीं सकती थीं। स्वर्णकुमारी को भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस की स्थापना के समय सदस्या बनने का गौरव मिला था। उन्होंने देश के इस पहले राष्ट्रीय दल के राजनीतिक सत्रों में भी सक्रिय भाग लिया।
सन 1868 में 13 वर्ष की आयु में उनका विवाह बंगाल के एक नेता और समाज सुधारक जानकीनाथ घोषाल से हुआ। जन्म-जन्म से चली आ रही यौन उच्चता की भावना ने भी स्वर्णकुमारी का कम नुकसान नहीं किया। एक बेहतर, प्रगतिशील, शिक्षित तथा समृद्ध परिवार में लेखन का अनुकूल वातावरण मिलने के बावजूद इनकी साहित्यिक उपलब्धियों को पितृसत्तात्मक समाज ने उनके घर में ही वह प्रोत्साहन नहीं दिया, या कहें कि अनदेखा कर दिया। परंतु स्वर्णकुमारी ने अपने स्वभाव के अनुकूल इसे कोई मुद्दा नहीं बनाया बल्कि अपनी साहित्यिक और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के प्रति समर्पित बनी रहीं। इन परिस्थितियों का विवरण इस पुस्तक के पन्नों पर अंकित है।
पाँच जुलाई सन 1932 को “अमृत बाजार पत्रिका” ने अपने समाचारपत्र में स्वर्णकुमारी देबी की मृत्यु का समाचार प्रकाशित करते हुए उनको यूँ श्रद्धांजलि दी थी,
“बंगाल की अपने समय की सबसे विलक्षण महिला जिसने वहाँ की स्त्री जाति के उत्थान के लिए वह सब किया जो उससे बन पड़ा।”
‘स्टेट्समैन’ ने महिलाओं के उत्थान में स्वर्णकुमारी के योगदान को लेकर एक मूल्यांकन करने का प्रयास किया था। समाचार पत्र में ‘उन्होंने रास्ता दिखाया’ शीर्षक से स्वर्णकुमारी के विषय में लिखा गया था,
“जब बंगाल की स्थिति महिलाओं के मामले में बहुत उदासीनता की थी और उनके उत्थान के प्रयासों का कड़ा विरोध हो रहा था, ऐसे में उन महिलाओं की स्थिति सुधारने में स्वर्णकुमारी द्वारा किए गए प्रयास हमें उस बात की याद दिलाते हैं जो एमरसन ने कभी कही थी कि
‘एक शक्तिशाली इंसान के पास हमेशा कोई न कोई रास्ता होता है और वह फिर औरों के लिए रास्ते बनाता है’।”
इससे पूर्व पत्रिका ‘बिचित्रा’ में स्वर्णकुमारी के विषय में लिखा गया था–
“यह कितना दुखद था कि जब बंगाल उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करने के लिए तैयार हो रहा था, उस महिला ने लोगों को इस सुख से वंचित कर दिया और स्वयं स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर गई। यह मापना मुश्किल है कि उनकी क्षति से बंगाली समाज और विशेष रूप से महिलाओं के उत्थान के प्रयासों का कितना नुकसान हुआ होगा। अपने लेखन और अन्य गतिविधियों से उन्होंने महिलाओं को और समझदार बनाने की पूरी कोशिश की थी। वह हमेशा नए रास्ते बनाने के लिए जानी जाती थीं, और उन रास्तों पर महिलाओं को आगे बढाने की प्रेरणा स्रोत थी।”
‘प्रबासी’ नाम की पत्रिका ने स्वर्णकुमारी के अवसान पर जो हृदयस्पर्शी रिपोर्ट प्रकाशित की थी, वह यूं थी,
“स्वर्णकुमारी ने महिलाओं के ऊपर 50 वर्षों पूर्व लगाए गए प्रतिबंधों के विरुद्ध भी संघर्ष करने का बीड़ा उठाया था। उसके अपने व्यक्तिगत प्रयासों से उनके अच्छे कामों का फल समाज मे पार्श्व में रहती आई अन्य महिलाओं को मिला है, जबकि ब्रह्मो समाज की गतिविधियों के रूप में उन्हें कड़ी आलोचना का भी सामना करना पड़ता था। परंतु सच बात यह है कि आज के बंगाली समाज में जो मुक्त व्यवस्था महिलाओं को मिल पाई है, वह स्वर्णकुमारी के ही प्रयासों का फल था।”
अंकिता कुंडु, एक महिला विमर्श की शोधार्थी का तर्क पूरी तरह जायज और सामयिक है, कि,
“बड़ा प्रश्न यह उठता है कि ऐसा कैसे हुआ कि एब बड़ी महिलावादी और राजनीतिक व्यक्तित्व वाली स्त्री स्वर्णाकुमारी का योगदान समय के साथ प्रासंगिक नहीं रह सका? उनके काम का लोप क्यों हुआ, जबकि उनके भाइयों के कामों को उने अवसान के बाद भी प्रशंसित और अनूदित किया जाता रहा है? क्या साहित्य एक दुधारी तलवार है, जो महिला और अल्पसंख्यक वर्ग के लेखकों के ऊपर हावी रहा करता है?”
मेरी यह पुस्तक उस विलक्षण महिला के कार्यकलापों को जानने, उन्हें श्रद्धांजलि देने, चुनौतीपूर्ण समय में उनके रचनात्मक, सामाजिक और राजनीतिक योगदान को रेखांकित कर भारतीय समाज, विशेषकर महिलाओं के उत्थान की गतिविधियों को सामने लाने का एक छोटा सा प्रयास है, ताकि हम उनसे प्रेरणा ले सकें। इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए कि स्वर्णकुमारी के लेखन और अन्य कृत्यों ने वास्तव में उस कठिन समय में हमारी जड़ों को मजबूत करने का काम किया था।
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(स्वर्णकुमारी देबी के जीवन और कृतियों पर लिखी पुस्तक, जो शीघ्र ही प्रकाशित होगी।)
साभार स्त्री दर्पण fb पेज