(अफ़ग़ान कहानी)
राना जुरमते
पश्तो से अंग्रेजी अनुवाद : शकीबा हबीब
हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह
सुबह का सूरज उदय होने को था। हस्का तंदूर के पास एक बर्तन में गुंथा हुआ आटा लिए बैठी थी। उसने थोड़ा सा आटा लिया और अपनी हथेलियों के बीच उसका गोला बनाया। उसने कटोरे के पानी में अपनी उंगलियां डुबोयीं और आटे के गोले को चपाती के आकार में फैलाना शुरू किया, जब तक वह पूरा वृत्ताकार नहीं हो गया। मिट्टी के तंदूर पर झुक कर उसने चपाती उसकी दीवार में चिपका दी।
रंगा, एक हाथ से अपनी नींद में डूबी हुई आँखें मलती, भीतर आयी, उसके घुंघराले बाल उसके चहरे पर बिखरे हुए थे।
“मूर जानी !” उसने अपनी माँ से कहा, “क्या बाबा मेरा बिस्कुट ले आये ?”
“नहीं, मेरी प्यारी बिटिया, तुम्हारे बाबा की आज रात की पाली है, वे अभी तक आये नहीं हैं। जाओ बिस्तर में सो जाओ, जैसे ही वे आएंगे मैं तुम्हें बता दूंगी।”
“नहीं ! मैं तुम्हारे पास बैठना चाहती हूँ।”
“ठीक है, फिर बैठो। लेकिन शोर मत मचाना – अभी सब लोग सोये हुए हैं।”
हस्का ने अपनी बगल की जगह पर थपथपाया। रंगा, अपने स्वयं के बालों से खेलती हुई, अपनी माँ की पिंडलियों से अपना नन्हा सिर टिका कर बैठ गयी। हस्का ने सोचा जब उसके पति, भूखे और थके हुए आएंगे तो उनके लिए घर में कितना कम भोजन होगा, बस ये रोटियां और चाय, गाय का जो दूध उसने निकाला है उसके अतिरिक्त। लेकिन कम से कम आज उन्हें वेतन मिल जायेगा और वे हफ्ते भर का राशन ले आएंगे।
उसके पांव से लगी हुई नन्हीं रंगा इतनी शांत थी कि उसने सोचा शायद वह सो गयी थी। जैसे ही उसने अपनी बेटी को देखने के लिए नीचे देखा, वह बहुत पास से आयी गोली चलने की आवाज से उछल गयी। फिर एक और आवाज। रंगा हस्का की गोद में कूद गयी। उन्होंने बाहर पेड़ों पर से चिड़ियों के उड़ने की आवाज़ें सुनी। हस्का ने रंगा को कस कर पकड़ लिया।
“या अल्लाह रहम! अबकी उन लोगों ने किसको मार डाला ?”
उसके परिवार के स्त्री- पुरुष शोर की दिशा की ओर लपकते अपने अपने कमरों से बाहर निकल आये। हस्का की सास जानती थी कि वे उनके साथ नहीं भाग पाएंगी – उनके पांव उन्हें बाहरी अहाते से अधिक दूर नहीं ले जा पाएंगे। उन्होंने अपने पोते को अपने लिए एक गिलास पानी लाने को कहा, फिर अपने पति से बोलीं, “जाइये और पता करिये कि उन लोगों ने गांव में फिर किसे मार डाला।” उन्होंने अपने बेटे को इशारा किया कि वह अपनी पत्नी और बच्चों को घर में ही छोड़ दे और अपने पिता के साथ जाए।
हस्का के स्वसुर ने अपनी टोपी पहनी और वे घर से बाहर चले गए। रंगा ने हस्का को उसे गोद से नीचे नहीं उतारने दिया। बच्ची को गोद में लिए हुए वह अपने कमरे में गयी और दीवार पर लटकी हुई घड़ी की ओर देखा। “अब तो सात बज गए हैं, वे अभी तक घर क्यों नहीं आये?” उसने स्वयं से पूछा। जमाल अपनी दादी के लिए पीने का पानी ले आया। उनके पानी पी चुकने के पूर्व ही पुरुष लौट आये, किसी की देह को अहाते में ले आते हुए।
वृद्ध महिला का पानी गले में फंस गया और उन्हें खांसी सी आ गयी। “कौन है यह? तुम लोग उसे हमारे घर क्यों ला रहे हो ?” उनकी आवाज में घबड़ाहट भर गयी थी।
हस्का के स्वसुर ने देह को रखने हेतु जमीन पर अपनी शॉल बिछा दी। मृत व्यक्ति के नीले कपड़े रक्त से भीगे हुए थे और उसकी जेबें फटी हुई थी।
हस्का की सास चीखने लगीं। हस्का अपनी जगह पर स्तंभित खड़ी थी। किन्तु रंगा मृत देह की ओर दौड़ गयी। “बाबा ! क्या आप मेरे लिए बिस्कुट ले आये ?” उसने, उसे हिलाने का प्रयत्न करते हुए, अपने नन्हें हाथों से उसकी छाती को धकेला। फिर वह अपनी माँ की ओर मुड़ी और बोली, “वे बिस्कुट नहीं ले आये, उन्होंने मुझ से झूठ बोला था।” वह उसके सीने पर अपने हाथ मारती रही, “बाबा, बाबा !”
कुछ ही मिनटों में सारा गांव वहाँ इकठ्ठा हो गया था। हस्का की स्वयं की माँ भी पहुँच गयी थी। उसने कस कर हस्का को अपने वक्ष से लगा लिया और उसे होश में लाने हेतु उसके चहरे पर थप्पड़ मारने का प्रयत्न किया। किन्तु हस्का ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह बुद्ध की भांति लम्बवत और स्थिर खड़ी थी। अंततः उसकी माँ ने उसका हाथ पकड़ा और उसे खींच कर गुल खान की मृत देह तक ले आयी।
हस्का घुटनों के बल बैठ गयी। गुल खान की आँखें बंद थी और उसकी देह रक्तरंजित थी। गोली लगने का एक घाव उसके ह्रदय के बिलकुल पास था। हस्का ने उस पर अपना हाथ रखा फिर अपना सिर उसके वक्ष पर रख दिया। उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था। उसने उसके चहरे का स्पर्श किया, उसके माथे का चुम्बन लिया और वहाँ लगे रक्त के धब्बे अपने हिजाब से पोछे। उसकी आँखों में आँसू भर आये। अकस्मात् वह जोर चीखी और उसने विलाप करना और अपने चहरे पर थप्पड़ मारना प्रारम्भ कर दिया।
अहाते में खड़ी स्त्रियों ने अपने हाथ अपने मुंह पर रख लिए, फिर एक दूसरे से फुसफुसाने लगीं : “हाय, यह कितनी ढीठ है, कितनी बेशर्म ! वह सब के सामने अपने पति के लिए विलाप कर रही है।”
“ हाय, हाय, यह कितनी बुरी बात है।”
“हमने आज के पहले ऐसी कोई औरत अपने गांव में नहीं देखी थी।”
हस्का की सास ने हस्का की माँ को आँख से संकेत किया। जिसका अर्थ था, “हस्का को उसके कमरे में ले जाओ।” हस्का की माँ ने अपनी बेटी की बांह छुयी। लेकिन हस्का नहीं हिली। उसने गुल खान का हाथ कस कर पकड़ लिया और कहा, “मुझे उनसे दूर मत करो। खुदा के लिए मुझे अकेला छोड़ दो।” उसकी माँ उसे हिला नहीं सकी इसलिए कुछ और औरतों ने हस्का को घेर कर उसे उसके पैरों पर खड़ा किया। उन्होंने उसे उसके कमरे में पहुंचा दिया। वहाँ उसकी माँ ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और उससे बात करने का प्रयत्न करने लगी।
“मेरी बेटी ! मैं तुम्हारे मन का दर्द महसूस कर सकती हूँ। लेकिन सभी लोगों के सामने हमें शर्मिंदा मत करो। वे सब तुम्हारे बारे में उल्टी सीधी बात करेंगे। अपने आप को घर घर की बात का मुद्दा मत बनाओ।”
हस्का ने रक्त जैसी लाल हो गयी आँखों से अपनी माँ की ओर देखा।
“बाबो, मेरा सब कुछ लुट गया। मेरे चमकीले दिनों पर काली रात पसर गयी और तुम कह रही हो कि मैं घर घर की बात का मुद्दा न बनूँ।”
उसने अपना सिर दीवार से लगा लिया और छत की ओर देखने लगी। उसके होंठ चुपचाप हिल रहे थे, “हाय, मेरे रंगा और जमाल, उन बेचारों का क्या होगा ?” वह उठी और अपने बच्चों को ढूंढने के लिए दौड़ी।
हस्का ने देखा कि उसकी सास बच्चों को उनके पिता की देह के पास ले गयीं थी। वे अपने पोते पोती से कह रहीं थी: “तुम्हारे बाबा मर गए। उनको देखो। यह आखिरी मौका है, तुम फिर उन्हें कभी नहीं देख पाओगे।” हस्का उनकी ओर दौड़ी और अपने बच्चों को अपने से कस कर चिपका लिया। नन्हीं रंगा ने अपने नन्हें हाथों से हस्का के आंसू पोछते हुए कहा, “बाबा से कहो न कि उठें और मेरे लिए बिस्कुट ले आएं।”
कुछ आदमी कफ़न और ताबूत ले कर आ गए। गुल खान एक शहीद था इसलिए उसे नहलाया जाना आवश्यक नहीं था। उसने जो कपड़े पहन रखे थे उन्होंने उन्हीं कपड़ों सहित उसे कफ़न में लपेट दिया और ताबूत में रख दिया। चार आदमियों ने उसे अपने कन्धों पर उठा लिया। हस्का और बच्चे उनकी ओर दौड़े और औरतें भुनभुनाने लगीं, “हाय, इतनी बेशर्मी ! इतनी गलत बात !” लेकिन इनमें से किसी बात का हस्का पर प्रभाव नहीं पड़ा। यह उसकी दुनिया थी जो उजड़ गयी थी, किसी और की नहीं।
हर काम ख़त्म हो गया : गुल खान को दफना दिया गया और हस्का विधवा हो गयी।
एक पखवाड़े के भीतर ही पूछताछ होने लगीं ; हस्का से विवाह हेतु इच्छुक पास और दूर के पुरुषों द्वारा। वह अपनी नीली आँखों और सुनहले बालों के लिए जानी जाती थी। यद्यपि वह पढ़ी लिखी नहीं थी लेकिन गुल खान उसे चतुर और दयावान होने के कारण प्यार करता था। उन दोनों ने मुसीबत के दिन साथ बिताये थे। हस्का जानती थी कि बाहर तमाम मर्द हैं जो उसकी इद्दत की अवधि ख़त्म होने के दिन गिन रहे हैं, एक विधवा के रूप में उसे जो शोक की अवधि गुजारनी है। हस्का ने उनकी कल्पना उन जंगली जानवरों के रूप में की जो अपने शिकार पर टूट पड़ने की प्रतीक्षा में हों।
हस्का को जब भी अपने लिए समय मिलता, वह अपने कमरे में जाती और दीवार पर लगी गुल खान की तस्वीर की ओर देखती रहती। कभी कभी वह उससे बात करने में इतना खो जाती कि उसके कमरे के बाहर परिवार के लोग उसे हँसते हुए सुनते। वे सोचते उसका दिमाग ख़राब हो रहा था। किन्तु हस्का गुल खान के गहन प्रेम में थी और जब तक कोई उसे पुकारता नहीं था वह गुल खान से बात करती ही रहती।
उसने उसे शुरुआत के दिनों की याद दिलाई : सात साल पहले का वह दिन, जब उसकी माँ ने उसकी बहन को उसे उसकी सहेली के घर से बुला लाने भेजा था। “हस्का, बाबा गुल खान से तुम्हारी शादी के लिए राजी हो गए हैं, बाबो ने तुम्हें तुरंत घर बुलाया है।” उस समय उसे नहीं पता था कि वह प्रसन्न होने अथवा दुखी होने का समय था। उसकी सहेलियां उसे छेड़ने लगी थी, इसलिए वह जल्दी से उठी और घर की ओर भाग आयी।
उसकी बहन रेश्मीना ने कहा, “यदि तुम खिड़की से देखो तो उसे देख सकती हो। वह बिलकुल खिड़की के सामने ही बैठा है।” वह ठीक हस्का के पीछे खड़ी थी। उसने पूछा था : “क्या सोचती हो ? क्या वह तुम्हें पसंद है ?”
हस्का अब गुल खान की तस्वीर की ओर देख कर मुस्करायी। “तुम अपनी सफ़ेद कमीज़ और काली सदरी में कितने सुन्दर लग रहे थे,” उसने कहा।
जब वे खिड़की से देख रहीं थी, उनकी माँ एकाएक उन दोनों बहनों के पीछे आ गयी। उन्होंने उन को दूर भगाया। “तुम दोनों कितनी शरारती और बेशरम हो, अपने कमरे में जाओ। जल्दी करो, सोचो, अगर कोई आता और तुम दोनों को यहाँ देख लेता तो !”
जब हस्का गुल खान की तस्वीर के साथ अतीत में विचरण कर रही थी, रंगा कमरे में आयी और उसने उसे एकाएक वर्त्तमान में ला दिया। “मूर जानी, मूर जानी ! चाचू बिस्कुट ले आये हैं लेकिन वे मुझे नहीं देंगे।”
“क्यों नहीं देंगे ?”
“उन्होंने कहा कि यह मैं अपने बच्चों के लिए ले आया हूँ। तुम जाओ और अपनी विधवा माँ से मांगो। मूर जानी, विधवा क्या होता है?”
हस्का कंपकपा गयी। “जब तुम बड़ी हो जाओगी और स्कूल जाओगी, तब जान जाओगी।”
“क्या दादा जी मुझे स्कूल जाने देंगे ?”
“क्यों नहीं ? तुम्हारे अब्बा चाहते थे कि तुम स्कूल जाओ। जब तुम छः साल की हो जाओगी, मैं उनकी इच्छा पूरी करुँगी।”
हस्का और प्रश्नों, जो रंगा पूछ सकती थी और जिसका उसके पास कोई उत्तर न होता, से बचने के लिए उठ गयी। जब वह रसोईघर की ओर जा रही थी उसके जेठ ने उसे आंगन में बुलाया।
“हस्का ! तुम कहाँ जा रही हो? यहाँ आओ, यह बात तुम्हारे सुनने की है।”
हस्का ने अपना हिजाब ठीक किया, जब तक कि उससे उसका आधा चेहरा ढँक नहीं गया और आंगन में इकठ्ठा हुए अन्य परिवारी जनों के साथ खड़ी हो गयी। यह देख कर उसे राहत मिली कि उसकी माँ भी आयी हुई थी। उसके पति के भाई ने कहना प्रारम्भ किया।
“यहाँ उपस्थित सभी लोग ध्यान से सुनें। यदि हस्का मुझसे शादी नहीं करेगी, तो मैं उसके बच्चों का खर्च नहीं उठाऊंगा।”
हस्का स्तंभित रह गयी। “लाला ! किसने कहा कि मैं फिर से विवाह करने जा रही हूँ ? अभी जमाल के अब्बा को मरे चार महीने भी नहीं हुए। तुम्हें पता है कि अभी इद्दत की अवधि भी पूरी नहीं हुई है।”
“बस! बस! मैं जानता हूँ कि तुम फिर से शादी करना चाहती हो। गांव भर के मर्द यह देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं कि तुम किससे विवाह करती हो। यदि तुम विवाह नहीं करना चाहती हो तो हर आदमी क्यों इतना परेशान है कि तुम किससे शादी करोगी? आज तुम सब यह साफ साफ सुन लो : हस्का केवल मुझसे शादी करेगी। मैं इतना बेगैरत नहीं हूँ कि मेरे यहाँ रहते हुए तुम किसी और से शादी करो।”
उसकी माँ ने उसकी बात समाप्त करने के लिए अपनी आवाज़ मिलाई। “निश्चित रूप से बेटा! यह हमारी संस्कृति है – एक विधवा को अपने पति के भाई से विवाह करना चाहिए। हस्का अभी जवान है और कोई नहीं है जो उसके बच्चों का भरण पोषण करेगा। वह अपना शेष जीवन अकेले नहीं गुजार सकती। जब उचित समय होगा और इद्दत का समय समाप्त हो जायेगा, हम निकाह करा देंगे।”
हस्का ने अपने चहरे पर हिजाब लपेट रखा था लेकिन उसकी आवाज दृढ थी। “आदे, आप क्या कह रही हैं? लाला ! आप क्या कह रहे हो ? मैं फिर से विवाह नहीं करने वाली हूँ।”
“क्या कहा तुमने ?” उसके जेठ ने उसे हिकारत की नजर से देखा और आंगन से बाहर चला गया। हस्का के सास-ससुर भी चिंता में अपने हाथ हिलाते हुए चले गए। उसकी माँ ने उससे धीरे से कहा :”मेरी बेटी, अपने जीवन से मत खेलो, यह हमारी परंपरा है। अपनी पड़ोसन को देखो : उसने अपने पति के मरने के बाद अपने जेठ से विवाह कर लिया। अब वह खुश है।”
हस्का अपने कमरे में भाग गयी। उसने गुल खान की तस्वीर नीचे उतारी और उसे अपने वक्ष से लगा लिया। फिर उसने उसे उस गद्दे के सहारे रख दिया जो मोड़ कर कमरे के एक कोने में रखा था। जमाल उसके पीछे पीछे कमरे में आया। “मूर जानी, जो कुछ चाचू ने कहा वह सब मैंने सुना। यदि तुम उनसे शादी नहीं करोगी, तो हमें खाना पीना कौन देगा?”
“मेरे पास आ कर बैठो मेरे भाग्यवान बेटे। अल्लाह हमारा भरण पोषण करेंगे। हमें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। जो हमारे भाग्य में हैं वह अल्लाह हमें देंगे।”
“अब कोई बिस्कुट भी नहीं मिलेंगे ?” रंगा ने पूछा, जो दरवाजे में से देख रही थी।
“हस्का ने हँसने का प्रयत्न किया। “अल्लाह की मर्जी, हम बिस्कुट खाएंगे। लेकिन आज नहीं, किसी और दिन।” हस्का ने अपनी बेटी के लटके हुए सिर की ओर देखा। “मैं किसी दिन तुम्हारे लिए जल्दी ही बिस्कुट बनाउंगी।”
थोड़े ही दिन बाद, हस्का जब रसोई की ओर जा रही थी, उसने कुछ आवाज सुनी जिससे उसका ध्यान आंगन की ओर चला गया। रंगा एक बड़े से बर्तन के सामने बैठी हुई थी और उसके सामने बहुत से गंदे कपड़ों का ढेर पड़ा हुआ था। वह अपने नन्हें हाथों से कपड़े धोने का प्रयत्न कर रही थी। हस्का उसकी ओर भागी।
“मेरी बिटिया, तुम यह क्या कर रही हो? ये कपड़े कहाँ से आये?
“जैनब चाची ने कहा है कि यदि मैं ये कपड़े धो देती हूँ तो वे मुझे और जमाल को एक एक अंडे देंगी।”
हस्का ने अपनी बेटी की बांह पकड़ी और उसे उठा लिया। उसके हाथ सुखाते हुए उसने देखा कि गर्म पानी से रंगा के नन्हें हाथ लाल हो गए थे। उसके कपड़े भी भीग गए थे। हस्का ने रंगा से अपने आँसू छिपाने का प्रयत्न किया। उसने ख़ुशी की आवाज बनाते हुए कहा, “जाओ कपड़े बदल लो और खेलो। मैं तुम्हारे लिए कुछ बनाउंगी।”
हस्का ने अपनी जेठानी को रसोई में अपने बच्चों को खाना खिलाते हुए पाया। बिना एक भी शब्द कहे हस्का आलमारी तक गयी और उसने दो अंडे उठाये। लेकिन तभी एक हाथ ने उसका हाथ रोक दिया और कहा, “क्या तुमने इन्हें लेने के लिए अनुमति ली ? मेरे पति ने इन अण्डों पर अपना पैसा खर्च किया है और तुम इन्हें नहीं ले सकती।”
“मेरी बहन, मेरे बच्चों ने सुबह से कुछ नहीं खाया है और अब सूरज डूबने वाला है। मैं ये अंडे खुद नहीं खाने जा रही हूँ, मैं इन्हें बच्चों के लिए पकाऊंगी। रंगा खाने के लिए कपड़े भी धो रही थी; उसके नन्हें हाथों पर छाले पड़ गए हैं। तुम उसे ऐसा काम करने के लिए कैसे कह सकी?”
“मैंने बिलकुल ठीक किया। उसे घर गृहस्थी के काम सीखने दो। उसकी शादी होगी और उसे दूसरे के घर जाना होगा। वह हमें शर्मिंदा नहीं कराएगी।”
“अल्लाह माफ़ करें, वह इतनी छोटी है कि अभी ठीक से खाना भी नहीं खा पाती। अभी उसकी शादी में बहुत लम्बा समय है।”
“दूर हटो यहाँ से। उसके लिए यहाँ कोई अंडे नहीं हैं। अल्लाह जाने वह तुमसे क्या चाहता है। तुम अपने पति के लिए दुर्भाग्य ले आयी अब तुम स्वयं को हमारे परिवार पर लादना चाहती हो।”
शोरगुल सुन कर वृद्ध महिला रसोई में आ गयी। हस्का ने ऊँची आवाज में कहा : “मैं तुम्हारे पति से विवाह नहीं करुँगी, तुम कितनी बार चाहती हो कि यह बात मैं कहूं?”
“उससे उसका मन नहीं बदलेगा। तुम एक विधवा की तरह व्यवहार नहीं करती हो। तुममें आकर्षण और हंसी भरी हुई है, तुम एक अविवाहित लड़की की तरह इधर उधर घूमती रहती हो। आश्चर्य नहीं कि आदमी लोग तुम में रूचि ले रहे हैं। तुम्हें अपना आचरण देखना चाहिए; हम रोज तुम्हें हँसते हुए सुनते हैं।”
“जैनब जान, मैं अपने बच्चों के संग हँसती हूँ।”
“तुम किसी के संग हँसो, पर तुमने मेरे पति पर जादू चला रखा है।”
हस्का ने और कुछ नहीं कहा। वह आंगन में कुएं की ओर तेजी से गयी। उसकी सास और उसकी माँ पीछे से चिल्लाई, “रुको, रुको !”
हस्का ने कुएं में अपना सिर झुकाया। उसकी माँ ने तेजी से उसकी बगल में पहुँच कर उसकी बांह खींची।
“तू क्या कर रही है, लड़की ?”
हस्का ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने कुएं में से एक बाल्टी पानी निकाला और ठंडा पानी अपने चहरे पर डाला। फिर उसने दो गिलास ला कर बाल्टी के पानी से भरे। उसने जमाल और रंगा को बुलाया और जमाल को पड़ोसी से रोटी मांग लाने को कहा।
जमाल ने वैसा किया जैसा उससे करने को कहा गया था। हस्का अपने दोनों बच्चों को अपने कमरे में ले गयी और उसने रोटी के दो टुकड़े किये। उसने एक टुकड़ा जमाल को और एक टुकड़ा रंगा को दे दिया और उनके आगे पानी के गिलास रख दिए। जमाल ने कुछ भी नहीं कहा लेकिन रंगा ने शिकायत के लिए अपना नन्हा मुंह खोला, “मूर जानी, तुमने अंडा नहीं पकाया।
हस्का परेशान थी। उसने कहा, “चुप रहो, और जो यहाँ है उसे खाओ। नहीं तो जा कर सो जाओ।” रंगा का मुंह लटक गया। उसने रोटी का एक टुकड़ा खाया, एक घूंट पानी पिया और जल्दी ही दीवार से लगी लगी सो गयी। जमाल ने सूखी रोटी निगलने की काफ़ी कोशिश की।
दरवाजा धीरे से खुला। हस्का ने ऊपर सिर उठाया और अपनी माँ को देखा जो आ कर उसकी बगल में जमीन पर बैठ गयी। उसने हस्का का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे धीरे बोली।
“मेरी बेटी, तुम इस तरह का व्यवहार क्यों कर रही हो? तुम क्यों लोगों को अपने बारे में चार बातें बनाने का मौका दे कर, अपना जीवन दुर्दशा में बिताना चाहती हो? तुम्हारी जेठानी तुम्हारी बुराई कर रही है और तुम्हारा जेठ भी। मगर वह ठीक है – तुम उस से शादी कर लो। तुम्हारे बच्चों को पिता मिल जायेगा और लोग तुम्हें तमाम बातों के लिए दोष देना बंद कर देंगे।”
जमाल एक कम्बल ओढ़े पड़ा हुआ था। उसने कम्बल से अपना चेहरा ढँक लिया था लेकिन सो नहीं सका था, वह बहुत ध्यान से वार्तालाप सुन रहा था।
हस्का ने स्पष्ट करने का प्रयत्न किया, “मैं अपने बच्चों के लिए सौतेला बाप नहीं चाहती। मैं जमाल के पिता के प्रति बेवफा नहीं होना चाहती। मैं विधवा कहला कर खुश हूँ लेकिन किसी और की पत्नी कहला कर नहीं।”
“क्या तुम अपना शेष जीवन अकेले काटना चाहती हो ?”
“मैं अकेली नहीं हूँ, मेरे साथ मेरे बच्चे हैं।” हस्का ने अपने सोते हुए बच्चों की तरफ देखा और लम्बी साँस ली, “मैं काम करुँगी।”
“तुम अनपढ़ हो, तुम क्या काम कर सकती हो ?”
“मुझे नहीं पता लेकिन मैं काम तलाश लूंगी – कोई भी काम – और पैसे कमाऊंगी।”
“हस्का, हमारे परिवार में कभी किसी औरत ने काम नहीं किया है। और तुम्हारी ससुराल वाले – तुम उनका क्या करोगी?”
हस्का वार्तालाप लम्बा नहीं चलने देना चाहती थी इसलिए उसने कहा, “मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है और मैं सोना चाहती हूँ। तुम यहीं रहो और तुम भी सो जाओ, बाबो।”
उसको सचमुच भयानक सिर दर्द हो रहा था इसलिए उसने एक हिजाब उठाया और उसे अपने सिर के चारों ओर लपेट लिया। अकस्मात् उसकी निगाह हिजाब के कोने में लगी एक गांठ पर पड़ी। उसके एक सिरे पर गोल सा कुछ वजन बंधा हुआ था। हस्का ने उसे खोला। उसके अंदर पैसे बंधे थे जिन्हें वह भूल चुकी थी – उस रात को गुल खान ने उसे पैसे सुरक्षित रखने को दिए थे जब वह रात की पाली की ड्यूटी के लिए फार्मेसी जा रहा था। हस्का ने अपने पति की तस्वीर पर एक आभार भरी निगाह डाली और पैसा गिनने लगी। इससे एक महीने का खर्च चल सकता था लेकिन उसे कुछ और भी बेहतर करने की आवश्यकता थी।
भोर से पहले हस्का ने अपनी माँ को जगाया, उसे पैसे दिखाए और अपनी बिस्कुट बनाने की योजना समझायी। “फिर तुम उसे सामने नादर चाचा की दुकान पर ले जाना और देखना कि क्या वे इसे बेच सकते हैं।”
“मगर तुम्हारे घर में बने हुए बिस्कुट कौन खरीदेगा?”
“मैं किसी और चीज के बारे में नहीं सोच पा रही। क्या तुम मेरी इतनी मदद करोगी ? हम अल्लाह पर भरोसा रख कर एक बार प्रयत्न करते हैं।”
जब उसकी माँ ने देखा कि हस्का अपने निर्णय पर दृढ है तो उन्होंने हस्का के हाथ से पैसे ले लिए।
“ठीक है, लेकिन मुझे बिस्कुट का सामान कहाँ मिलेगा ?”
“पड़ोसियों से पूछो, जब तक शेष सब लोग सोये हुए हैं।”
सुबह के चार बजे उसकी माँ सामने वाले पड़ोसी के घर गयी। पड़ोसी ने दरवाजा खोला और उन्हें आटा, तेल, अंडे, शक्कर और इलायची इत्यादि जो सामान चाहिए था दे दिया। हस्का की माँ ने उन्हें इसका दाम चुकाया और हस्का के पास आ गयीं।
हस्का ने तंदूर में पहले ही आग जला ली थी। उसने सुबह की नमाज़ से पूर्व ही बिस्कुट तैयार कर लिए और उन्हें अपनी माँ को देते हुए कहा, “नादर चाचा से कहना कि वे जितने बिस्कुट बेच पाएंगे, हमारा उनका फायदा आधा आधा रहेगा।”
जब वह नादर की दुकान पर गयी, हस्का की माँ ने उन्हें अपनी बेटी की मुसीबत के बारे में बताया और यह भी कि उसे पैसों की सख्त जरुरत है। “क्या आप ये बिस्कुट अपनी दुकान पर रख सकते हो, देखो शायद कोई खरीद ले ?”
दुकानदार ने दुःख जताया। उसने कहा, “ठीक है, इन्हें यहीं छोड़ दो और शाम को वापस आना फिर हम बात करेंगे।”
वापस घर में, हस्का का जेठ फिर उसे उलटी सीधी बातें कह रहा था।
“तो तुम्हारी कब तक भूखे रहने की योजना है? तुम कैसे जिन्दा रहोगी? यदि तुम मुझसे शादी नहीं करती तो कम से कम अपने बच्चों के बारे में सोचो, वे भी भूखे हैं।” उसने रंगा से कहा, “जो मैं कह रहा हूँ उसे तुम्हारी माँ यदि मान लेती है तो मैं अभी तुरंत तुम्हें नाश्ता दूंगा।”
हस्का की सास ने कहा, “बेटा ऐसा मत करो। वे छोटे बच्चे हैं, उन्हें तकलीफ होगी।”
पूरे दिन हस्का बेचैन रही, अपने हाथ रगड़ती हुई वह आंगन में एक सिरे से दूसरे सिरे तक टहलती रही। वह जानती थी कि शाम को लौटते समय उसकी माँ नादर चाचा की दूकान पर जरूर रुकेंगी। हस्का अधीर होती हुई उनकी प्रतीक्षा करती रही और जब उसने अपनी माँ के लौटने की आवाज सुनी वह उनसे मिलने के लिए तेजी से दरवाजे की ओर भागी।
हस्का की माँ अपनी बेटी का चिंतित चेहरा देख कर मुस्करायी। “साँस लो, मेरी बच्ची। नादर चाचा ने सारे बिस्कुट बेच दिए। ये रहे तुम्हारे पैसे।”
‘इतने सारे ? ये तो एक हजार अफगानी हैं.”
“उन्होंने कहा कि वे अपना फायदा अगली बार से लेना शुरू करेंगे। उन्होंने कहा है कि तुम इन्हें बनाना जारी रखना – सब को घर के बने बिस्कुट पसंद हैं।”
हस्का की सास ने पूछा कि किस बात का इतना उत्साह है।
“आदे, मैंने अपने बच्चों का खर्चा चलाने का एक रास्ता निकाल लिया है। इसलिए मुझे लाला से शादी करने की जरुरत नहीं है।” उसने परिवार की महिला प्रमुख को हर चीज विस्तार से समझायी। उसका जेठ भी पास खड़ा सब सुन रहा था। जब उसे वास्तविकता का भान हुआ कि वह क्या कह रही है, तब उसने गुस्से में कहा :
“हमारा नाम ही बस एक चीज थी जो बची थी, तुमने उसे भी मिट्टी में मिला दिया। यह हमारे लिए बड़े शर्म की बात होगी कि तुम जा कर दुकानदारों से बात करती फिरो। आदे, तुम ही बताओ इसे।”
उसकी माँ ने अधीरता से कहा, “यदि वह तुमसे शादी नहीं करना चाहती, तो तुम क्यों उसके साथ जबरदस्ती कर रहे हो? इस तरह की शादी से कोई खुश नहीं रहेगा। यदि वह घर पर बिस्कुट बनाती है और जमाल उसे दुकान पर ले जाता है तब तो तुम्हारा नाम नहीं ख़राब होगा?”
हस्का का जेठ अपनी माँ की व्यवस्था सुन कर स्तंभित सा एक क्षण को स्थिर खड़ा रहा । फिर वह तेजी से यह कहता हुआ बाहर चला गया, “मुझे उससे आगे से कोई मतलब नहीं है। वह मेरे लिए मर गयी। एक बार कोई औरत जब घर से बाहर काम करने लगे तो उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।”
हस्का मुस्कराती रही।