रणधीर वर्मा ने पुलिस सेवा की नौकरी 1974 में अपनाई तो वे इस बात से अवगत थे कि वह एक ऐसे पेश में गए हैं, जिसकी कर्तव्यनिष्ठा, कार्यकुशलता और ईमानदारी को लेकर लोगों के मन में हमेशा सवाल बना रहता है. उन्होंने विवेक, कर्त्तव्यपरायणता तथा हिम्मत के बल पर किसी के आगे न झुकने वाला एक निर्भीक व्यक्तित्व बनाया, जो नाना प्रकार के विकारों से वंचित था। पर निर्णय में कठोर था.
(विनोद आनंद )
3 ज नवरी 1999 का दिन था. तत्कालीन बिहार राज्य के कोयला राजधानी के नाम से मशहूर धनबाद के एसपी रणधीर प्रसाद वर्मा को सूचना मिली कि बैंक ऑफ़ इंडिया के हीरापुर शाखा में ए के 47 स्वचालित राइफलों से लैस आतंकवादियों का एक गिरोह द्वारा डकैती का प्रयास किया जा रहा है.उन्होंने अन्य पुलिस कर्मियों को सूचना देकर स्यंव भी तुरंत घटना स्थल पर पहुंचे.और अपराधी से भीड़ गए.उन्होंने अकेले इस डाका को विफल कर दिया.इस घटना में वे शहीद भी हो गए.उन्होंने वीरगति पायी.
इस घटना ने ना मात्र बिहार बल्कि पूरा देश को हिलाकर रख दिया. इस घटना में हमने एक जांबाज आईपीएस ऑफिसर को खो दिया. उस दिन वे आतंकवादियों से मुठभेड़ करते शाहीद हो गए.
भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी और तत्कालीन धनबाद के आरक्षी अधीक्षक रणधीर प्रसाद वर्मा ने अपने कर्तव्य के बलिवेदी पर धनबाद के एक बैंक को पंजाब के भगोड़े आतंकवादियों से लूटने से बचाया था. ये आतंकवादी झारखंड क्षेत्र में पैर जमाने का साहस किया था अगर रणधीर प्रसाद वर्मा ने अदम्य साहस नही दिखाया होता तो उसे मौका मिल गया होता, और हो सकता है कि नक्सलवाद की समस्या से कराहते झारखंड की सूरत और भी बदरंग हो चुकी होती.
पर इस जांबाज पुलिस अधिकारी ने ने रण में युद्ध करते हुए मृत्यु का वरण करना ज्यादा पसंद किया और वीरगति को प्राप्त करके राष्ट्र की शान बढ़ाई.
इसमें दो राय नहीं कि अत्याधुनिक हथियारों से लैस पंजाब के भगोड़े आतंकवादी अपने को आर्थिक रूप से सशक्त करके झारखंड क्षेत्र में पांव जमाने के लिए धनबाद के हीरापुर स्थित बैंक आफ इंडिया पर जिस तरह धावा बोला था, वह एक देशभक्त पुलिस अधिकारी के लिए रण में युद्ध जैसा ही था.
इस घटना के सत्ताइस साल होने को हैं. पर जनता की जेहन में आज भी वह घटना छाई हुई है और अपने जांबाज पुलिस अधिकारी की शहादत की याद ताजा है. वह दिन 1991 का 3 जनवरी था, जब रणधीर वर्मा ने उस दुर्दांत आतंकवादियों से अकेले मोर्चा लेते हुए मृत्यु को वरण किया और वीरगति पाई थी.
एक मामूली रिवाल्वर से एके 47 एसाल्ट राइफल का मुकाबला करना एक कर्तव्यनिष्ठ और भारत माता के सच्चे सपूत का ही निर्णय हो सकता था.
नतीजतन आतंकवादियों में से एक ने तत्काल दम तोड़ दिया और बाकी भाग खड़े हुए थे.जिसे पुलिस ने पकड़ लिया और मुठभेड़ में मार गिराया.इस तरह झारखंड क्षेत्र में पैर जमाने की एक बड़ी साजिश नाकाम हो गई थी. इसके बाद राष्ट्रपति ने मरणोपरांत उन्हें वीरता का विशिष्ट पदक “अशोक-चक्र” से सम्मानित किया था, जिससे उद्घोषित हुआ कि राष्ट्र का यह सपूत भारतीय पुलिस सेवा में एक अनोखा उदाहरण है.
बिहार के सहरसा जिले में 3 फरवरी 1952 को जन्मे रणधीर वर्मा एक प्रतिभाशाली छात्र थे, जो बीए (आनर्स) की परीक्षा पास कर भारतीय पुलिस सेवा के अंग बने थे. उनके दुस्साहसी, जोशीला और निष्ठावान होने के प्रमाण विद्यार्थी जीवन में ही मिलने लगा था, जब वे संत जांस हाई स्कूल रांची और पटना कालेज में पढ़ने गए.
खेल-कूद में उनकी गहरी रूचि थी.पर उन्होंने मुख्यत क्रिकेट में पहचान बनाई. गेंदबाज और बल्लेबाज दोनों ही भूमिका में वह सफल रहे.इसका प्रभाव उनके भावी जीवन पर भी पड़ा.
रणधीर वर्मा ने पुलिस की नौकरी जीविका के लिए नहीं, वरण सेवा के रूप में स्वीकार की.
पुलिस सेवा के प्रारंभिक प्रशिक्षण काल में ही उन्होंने मटका-जुआरियों के कुख्यात गिरोह को ध्वस्त किया. रांची नगर के प्रभारी सहायक आरक्षी अधीक्षक के पद पर कार्य करते हुए उन्होंने सांप्रदायिक सद्भावना बनाए रखने के लिए अथक प्रयास किया. तब अविभाजित बिहार के दक्षिणी छोटानागपुर का कोई न कोई कोना सांप्रदायिकता के प्रभाव से रोता-विलखता रहता था. इन परिस्थितियों से निबटने के लिए श्री वर्मा ने एक कार्य-योजना बनाई और सबके हृदय से समां गए.
रणधीर वर्मा ने पुलिस सेवा की नौकरी 1974 में अपनाई तो वे इस बात से अवगत थे कि वह एक ऐसे पेश में गए हैं, जिसकी कर्तव्यनिष्ठा, कार्यकुशलता और ईमानदारी को लेकर लोगों के मन में हमेशा सवाल बना रहता है. उन्होंने विवेक, कर्त्तव्यपरायणता तथा हिम्मत के बल पर किसी के आगे न झुकने वाला एक निर्भीक व्यक्तित्व बनाया, जो नाना प्रकार के विकारों से वंचित था। पर निर्णय में कठोर था.
उनके प्रभावशाली क्रिया-कलापों के कुछ नमूने प्रारंभ में ही सरकार के सामने आए। अत: सरकार ने उन्हें बेगूसराय जौसे अपराधग्रस्त जिले का पुलिस अधीक्षक बनाया था.
श्री वर्मा ने बेगूसराय में आरक्षी अधीक्षक पद पर योगदान करते ही माफिया कामदेव सिंह के आतंक से जनता को मुक्ति दिलाने के लिए अभियान चलाया. राजनीतिक संरक्षण के कारण कामदेव सिंह पर दबिश बनाना आसान काम नहीं था. लेकिन श्री वर्मा की कर्तव्यनिष्ठा और न्यायप्रियता के आगे किसी की एक न चली और रणधीर वर्मा को विजयी हाथ लगी.
कामदेव सिंह की लाश गिरते ही उसके गिरोह का गरूर ध्वस्त हो गया। इस घटना के बाद रणधीर वर्मा जनता के हृदय सम्राट बन गए थे.
कुख्यात कामदेव गिरोह के सफाए के बाद सरकार को बड़ी राहत मिली थी.जाहिर है कि इस घटना के बाद सरकार के लिए भी संकटमोचन बनकर उभरे। सिंहभूमि जिला में कोल्हान आंदोलन उग्रता हो चुका था. कई पुलिसकर्मियों की जानें जा चुकी थीं. ऐसे में स्वाभाविक रूप से सरकार को रणधीर वर्मा की याद आई. श्री वर्मा को कोल्हान की जिम्मेदारी दी गई.श्री वर्मा ने कोल्हान की जनता पर बिना बल प्रयोग किए शांतिपूर्ण तरीके से स्थिति को काबू में किया और वे कोल्हान की जनता के नायक बन गए.
श्री वर्मा सन् 1983 में जब मुजफ्फरपुर के पुलिस अधीक्षक थे तो एक अपहृत बालक अपहरण हो गया था। उन्होंने रिक्शाचालक का वेष धारण करके उस बालक को अपहर्त्ताओं से मुक्त कराया था. पश्चिम चंपारण में फिरौती के लिए अपहरण करने वाले गिरोहों पर ऐसी लगाम लगाई कि जनता को वर्षों बाद जंगल राज से मुक्ति मिली थी। अपराधियों के राइफल, बंदूक और खंजर पर लगे जंग तब छूटे जब राजनीतिक दबाव में श्री वर्मा का तबादला हो गया.
अपने कार्य-कलापों से लोकप्रियता प्राप्त करने के बावजूद राजनीतिक दबाव में तबादला यह कोई पहली घटना नहीं थी। श्री वर्मा तो इसके मानों आदी हो गए थे.
सन् 1989 में संकट की घंटी धनबाद में बजी तो श्री वर्मा का बेचैनी से स्मरण किया गया। बहुचर्चित पत्रकार कांड के कारण पुलिस और जनता में छत्तीस का रिश्ता बन गया था.इस विषम समस्या का समाधान एक लोकप्रिय पुलिस अधिकारी ही कर सकता था। ऐसा हुआ भी.रणधीर वर्मा सूझ-बूझ, मधुर व्यवहार तथा व्यापक दृष्टि के कारण धनबाद के लोगों के कंठहार बने। इससे पुलिस को काफी सम्मान मिला. माफिया गिरोहों पर पुलिस की पकड़ बनी.सांप्रदायिक सौहार्द्र बरकरार रहा.
3 जनवरी 1991 को श्री वर्मा अपने दफ्तर में थे। तभी उन्हें बैंक पर आक्रमण की सूचना मिली. वे व्यक्तिगत सुरक्षा की चिंता किए बगैर अपने अंगरक्षक के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए.आतंकवादियों को ललकारते हुए पहली मंजिल स्थित बैंक की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे। गोलियां चलीं। घायल रणधीर वर्मा ने रिवाल्वर से ही दो आतंकवादियों को मार गिराया. ….और खुद वीरगति को प्राप्त हुए.
रणधीर वर्मा की शहादत के साथ ही एक ऐसी दीपशिखा बुझी, जिसकी लौ में अनेक की आशा-आकंक्षाएं चमकती थीं.यही कारण है कि चौदह किलोमीटर लंबी शव-यात्रा में धनबाद की रोती-विलखती जनता उमड़ पड़ी थी.